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Wednesday, 19 February 2020

कभी कभी दर्द (ग़ज़ल) - राजीव कपिल

कभी कभी दर्द
(ग़ज़ल)
कभी कभी दर्द अच्छा लगता है।
दूर बजता ढोल अच्छा लगता है।।

कांधे पे रख के सर जिसके रो सके
वो हमदर्द अच्छा लगता है।।

करू मिस्ड कॉल तो कॉल करती है
ये अंदाज उसका अच्छा लगता है।।

औरो से बातें करती बेतकल्लुफ वो
और मुझसे शर्माना अच्छा लगता है।।

कभी जब रूठती वो बिन बात के
उसको मनाना अच्छा लगता है।।

क्या हुआ जो बहर में लिख पाता नही
वो कहती तुमको पढ़ना अच्छा लगता है।।

वो बैठे पास में फिर न बोले चाहे
मुझे तो साथ उसका अच्छा लगता है।।

क्यूँ जाने ट्रांसफर से कतराते है लोग
मुझे पहाड़ पर चढ़ना अच्छा लगता है।।

रहूँ कही भी या सफर में रहूँ
घर आकर ही अच्छा लगता है।।

बेटी तो मेरे दिल की धड़कन है
पर बेटा भी अच्छा लगता है।।

गूंजे जिस आंगन किलकारी बिटिया की
कपिल वो घर अच्छा लगता है।।
-०-
पता:
राजीव कपिल
हरिद्वार (उत्तराखंड)

-०-

***
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*मेरी भी सुनो...* (कविता) - दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र'

*मेरी भी सुनो...*
(कविता)

बनी धाय थी ,वही गाय हूं,
करते क्यों तुम तिरस्कार ।
किस दिन लौटे,फिर जीवन में,
मेरे वो ही पूर्व बहार ।

बन उजाड़ मैं पिटती जाऊं,
तुम्हें फरक कब पड़ता हैं।
तन-मन पर जो घाव लगा है,
पीड़ा दे, वो सड़ता है।

हाय ! मेरे गोपाल कहाँ हो,
ढूंढू तुमको मैं बन-बन ।
इससे तो मुझे मौत भली है,
नरक बन गया यह जीवन।

ओ भारत-जन मुझको मेरा,
खोया पद वो लौटाओ ।
नहीं तो अब ना मइया कहना,
ना मेरे अब पुत कहाओ।

कभी तो मैं थी पूजी जाती,
द्वार-द्वार घर-मंदिर।
दर-दर भटक रही हूं अब मैं,
घर के खड़ी हूं बाहर।

वंश मेरा कपूत नहीं है ,
सोचो तुम इक बार।
असीम ऊर्जा से भरा हुआ,
वो रहता बेकरार ।

जिसको तुमने भाई था माना,
मरता घर वो कसाई।
गौशाला अब बनी आसरा,
वहाँ भी है रुसवाई ।

सत्य-अहिंसा-न्याय के पालक,
मेरा भी कुछ न्याय करो ।
पीढ़ियां जिसने अमृत पोषी,
उससे ना अन्याय करो।

धर्म के रक्षक बने हुए हो ,
अधर्म ना मेरे साथ में हो।
मैं भी खुश हो ,जी लूं तुम संग,
मजा पुरानी बात में हो।

अर्थनीति में बन्ध कर तुम,
धर्म-अधर्म को भूल गए।
संस्कृति की पहचान को खोकर,
मात-पिता भी समूल गए।

वही कामधेनु हूं, जिससे तुमनें,
मन वांछित फल था पाया।
देव से तुम भी, कृतघ्न बने अब,
फर्ज तुम्हारा बिसराया।

तिल-तिल कर मैं मरती जीवन,
सहानुभूति तुम दिखलाओ।
वही धाय फिर बनूँ तुम्हारी,
सपूत बनो ,मुझको अपनाओ।
-०-
पता:
दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र' 
बूंदी (राजस्थान)

-०-

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फलो-फूलो (कविता) - संगीता ठाकुर (नेपाल)


फलो-फूलो
(कविता)
तुम फलो–फूलो
और खूब बढ़ो
सूरज–चाँद पर
उड़ान भरो ।
दिन–रात चौगुणा
विस्तार बनो
जीवन में आगे तुम
शिर्ष रहो ।
नव वर्ष तेरे नव जीवन में
आकर नव खुशियाँ
खूब बाँटे
मानव होकर
तुम मानव का
भरपुर जग में
सहयोग करो ।
हर पिछड़े, भूखे
जन, धन का
अपने बल से
उपकार करो ।
जीवन में खुशियाँ
खूब लूटो ।
हर मन के उस नफरत को
प्रेम अमृत से
उसे ध्वस्त करो ।
मानव होने का नाज सदा
उस प्रभु का यह
उपकार समझो
नव वर्ष में अपने नव कर्म से
मन के उपवन में खूब खिलो
कर्ममय अपने खुशबू से
इस जग को सुगन्धित
और खुशहाल करो
मानव होने का नाज करो ।।-०-
संगीता ठाकुर
ललितपुर (काठमांडू - नेपाल)



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बर्फ के बिछौने ! (मुक्तक) - अशोक 'आनन'


बर्फ के बिछौने !
(मुक्तक)
बिछ गए
फिर से -
बर्फ - बिछौने
सूरज -
रीस गया फिर
धरा से
पड़ा जो
धुंध में -
मुंह छुपाके
झरे
कपोत के फिर -
पंख सलौने
हवा रेशमी
पांव-
बांध पायल
रुनझुन से
करती -
तन - मन घायल
हरित चुनर
और -
शबनमी खिलौने
पहन
धूप के -
मफ़लर - स्वेटर
खपरैल कांपे -
थर - थर , थर - थर
रात ताड़ - सी
ये दिन हैं -
बौने
पेड़
बर्फ की -
चादर ओढ़े
सर्द हवा के
दिन - रात झेले -
 कौड़े
भरें कुलांचें
अब -
धूपई छौने
-०-
पता:
अशोक 'आनन'
शाजापुर (म.प्र.)

-०-




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एक पंथ दो काज (लघुकथा) - डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

एक पंथ दो काज
(लघुकथा)
अक्सर इतवार की शाम शर्मा जी अपने बीबी-बच्चों के साथ लाँग ड्राइव पर शहर से दूर गाँव की ओर निकल पड़ते थे। इस बार भी अभी वे शहर के आउटर में ही पहुँचे थे, कि उन्होंने सड़क किनारे गाड़ी रोक दी। उनकी दस वर्षीया बेटी ने पूछा, "क्या हुआ पापा ? आपने गाड़ी क्यों रोक दी ?"
शर्माजी ने कहा, "बस दो मिनट रूको। मैं अभी आया।"
शर्माजी गाड़ी से उतरकर एक ठेले पर गए, जहाँ एक बुजुर्ग दंपत्ति समोसे बना रहे थे, वहाँ से खरीदने लगे।
गाड़ी में बैठे उनके सात वर्षीय बेटे ने कहा, "मम्मा, देखो पापा कैसे उन बूढ़े लोगों से समोसे खरीद रहे हैं। छी... छी... मैं तो नहीं खाऊँगा। आप लोगों को खाना हो, तो खा लेना।"
मम्मी ने कहा, "ठीक कह रहे हो बेटा। मत खाना तुम।"
शर्माजी थैले में समोसे लटकाए आए और फिर से उनकी गाड़ी चल पड़ी आगे। कुछ दूर आगे जाकर उन्होंने गाड़ी फिर से रोक दी। बोले, "आप लोग पाँच मिनट रुको। मैं अभी आया।"
वे समोसे की थैली लिए निकले और सड़क किनारे स्थित अनाथालय के मैदान में खेल रहे रहे बच्चों को समोसे बाँटने लगे। थोड़ी देर बाद वे आकर फिर से गाड़ी ड्राइव करने लगे।
बेटी से रहा नहीं गया। पूछ बैठी, "पापा आपने समोसे क्यों खरीदे थे ?"
पापा ने समझाया, "बेटा, हम सक्षम लोग हैं। हमारे लिए सौ-दो सौ रुपए कुछ विशेष मायने नहीं रखते। जिनसे मैंने समोसे खरीदे, उनके लिए ये बहुत मायने रखते हैं। उनकी उम्र देखी थी आप लोगों ने ? अस्सी साल से क्या कम रही होगी ? इस उम्र में बहुत जरूरतमंद व्यक्ति ही काम करते हैं। वे स्वाभिमानी हैं, जो खुद काम कर गुजारा करते हैं। उनसे समोसे खरीद कर और इन अनाथ बच्चों को खिलाकर मैंने एक साथ दो-दो नेककार्य कर लिए।"
"वावो, यू आर ग्रेट पापा। लव यू।" बेटी ने कहा।
-०-
पता: 
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर (छत्तीसगढ़)

-०-

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