*मेरी भी सुनो...*
(कविता)
बनी धाय थी ,वही गाय हूं,
करते क्यों तुम तिरस्कार ।
किस दिन लौटे,फिर जीवन में,
मेरे वो ही पूर्व बहार ।
बन उजाड़ मैं पिटती जाऊं,
तुम्हें फरक कब पड़ता हैं।
तन-मन पर जो घाव लगा है,
पीड़ा दे, वो सड़ता है।
हाय ! मेरे गोपाल कहाँ हो,
ढूंढू तुमको मैं बन-बन ।
इससे तो मुझे मौत भली है,
नरक बन गया यह जीवन।
ओ भारत-जन मुझको मेरा,
खोया पद वो लौटाओ ।
नहीं तो अब ना मइया कहना,
ना मेरे अब पुत कहाओ।
कभी तो मैं थी पूजी जाती,
द्वार-द्वार घर-मंदिर।
दर-दर भटक रही हूं अब मैं,
घर के खड़ी हूं बाहर।
वंश मेरा कपूत नहीं है ,
सोचो तुम इक बार।
असीम ऊर्जा से भरा हुआ,
वो रहता बेकरार ।
जिसको तुमने भाई था माना,
मरता घर वो कसाई।
गौशाला अब बनी आसरा,
वहाँ भी है रुसवाई ।
सत्य-अहिंसा-न्याय के पालक,
मेरा भी कुछ न्याय करो ।
पीढ़ियां जिसने अमृत पोषी,
उससे ना अन्याय करो।
धर्म के रक्षक बने हुए हो ,
अधर्म ना मेरे साथ में हो।
मैं भी खुश हो ,जी लूं तुम संग,
मजा पुरानी बात में हो।
अर्थनीति में बन्ध कर तुम,
धर्म-अधर्म को भूल गए।
संस्कृति की पहचान को खोकर,
मात-पिता भी समूल गए।
वही कामधेनु हूं, जिससे तुमनें,
मन वांछित फल था पाया।
देव से तुम भी, कृतघ्न बने अब,
फर्ज तुम्हारा बिसराया।
तिल-तिल कर मैं मरती जीवन,
सहानुभूति तुम दिखलाओ।
वही धाय फिर बनूँ तुम्हारी,
सपूत बनो ,मुझको अपनाओ।
-०-
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