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Monday, 30 March 2020

सेवा भाव (कविता) - सुनील कुमार माथुर

सेवा भाव
(कविता)
आज हम अपने आपकों
इस देश का सभ्य नागरिक कहते है लेकिन
सेवा भाव से कतराते है
जब दीन दुखियों और
पशु पक्षियों की सेवा की बात करतें है तो
लोग कहते है कि
यह तो मांगने का तरीका है
कोई गाय के नाम से
कोई मंदिर के नाम से
कोई वृध्दाआश्रम के नाम से तो
कोई दीन दुखियों की सेवा के नाम से
आये दिन मांगते ही रहते है
लेकिन हम कहते है कि
आप दीन दुखियों की सेवा करें
गायों की सेवा स्वंय कीजिए
अगर आप गऊशाला मे
दान पुण्य की रकम नहीं देना चाहते है तो
मत दीजिए लेकिन
अपने घर के बाहर
गायों को गर्मी से राहत दिलाने के लिए
पानी की कूंडी तो रख सकते हैं या
पानी से भरा एक टप तो रख सकते हैं
गाय को चारा तो डाल सकते हैं
जब हम अपने घर पर
आये मेहमान से चाय नाश्ते के लिए पूछते है तो
क्या इन मूक गायों के लिए
इतना भी नहीं कर सकतें
-०-
सुनील कुमार माथुर
जोधपुर (राजस्थान)

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अपनी ताकत को पहचानो (गीत) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'


अपनी ताकत को पहचानो 
(गीत)
बना खलीफा तुमको भेजा गया जहाँ में ,
ऐ लोगों तुम अपनी ताकत को पहचानों ।
*****
आदम की योनी तुमने पाई लासानी ।
हर योनी इसके आगे भरती है पानी ।।
भग्यवान हो तुम जो ऐसा अवसर पाया ।
परम पिता ने खुश होकर के तुम्हें बनाया।।
पहचानोगे खुद को तब ही बात बनेगी।
झांको खुद में देखो तुम क्या हो दीवानों।।
बना खलीफा तुमको भेजा गया जहाँ में ।
ऐ लोगों तुम अपनी ताकत को पहचानों ।।
*****
खुद रब ने जिसको अपने सांचे में ढ़ाला ।
भला नहीं क्यों होगा वो उसके गुणवाला ।।
वो सामान दृष्टा बन भेद नहीं करता है ।
वो खुशियों से सबकी ही झोली भरता है ।।
करूणा दया शील संतोष आदि गुण सारे ।
हों जिसमें वो शख्स आदमी है ये जानों ।।
बना खलीफा तुमको भेजा गया जहां में।
ऐ लोगो तुम अपनी ताकत को पहचानों।।
********
आदम हैं हम,हैं"अनन्त" उसकी परछाई ।
दूर जो हमसे बैठा है ,हममें है भाई ।।
क्या है गलत सही क्या है हर पल बतलाता।
लेकिन कम अक्लों का उसपे ध्यान न जाता ।।
सबके दिल में बैठा वो,क्योंभटक रहे हम।
पा सकते हैं उसको, ये समझो नादानों ।।
बना खलीफा तुमको भेजा गया जहाँ में।
ऐ लोगों तुम अपनी ताकत को पहचानों ।।
-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

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यादों का पिटारा (कविता) - श्रीमती सुशीला शर्मा

यादों का पिटारा
(कविता)
तहखाने में मैंने देखा, इक लोहे का बक्सा
रखा हुआ था उसमें मेरी, किस्मत का लेखा-जोखा
झाड़ पौछ कर खींचा आगे, लगा हुआ था ताला
चाबी लाकर खोला तो, निकली यादों की माला ।

एक कोने में रखे खिलौने , छोटे चकला बेलन
एक कढ़ाई, करछी, थाली, चूल्हा और एक झाड़न
एक तरफ था मेरे प्यारे, गुड्डे - गुड़िया का जोड़ा
बैठ के गुड्डा जिसमें आया, वो भी था एक घोड़ा ।

धूमधाम से हमने मिलकर, उनका ब्याह रचाया
घर के पिछवाड़े में मंडप, फूलों का सजाया
फेरे लेकर गुड़िया रानी, मेरे घर आई थी
मित्र मंडली नाच नाच कर, उसे संग लाई थी ।

पास में कुछ छोटे कपड़े ,जो मुझको चिड़ा रहे थे
जिनकी खातिर लड़ती थी मैं, सब कुछ बता रहे थे
दीदी वाली पुस्तक भी , जो मैनें भी पढ़ डाली थी
ड्रेस भी दीदी वाली थी, जो पहन के स्कूल जाती थी ।

एक छड़ी भी रखी थी इसमें, माँ हमको हड़काती थी
हल्ला ,गुल्ला करने पर वो, इससे हमें डराती थी
कुछ दद्दू की चिट्ठी भी थीं, जिससे हमें बुलाते थे
गर्मी की छुट्टी में हम सब, गाँव घूम कर आते थे ।

गेहूँ, गन्ना, चने, मटर की, फसलें वहाँ लहराती थीं
दूध, दही, घी लस्सी, मक्खन, दादी हमें खिलाती थी
हृष्ट-पुष्ट हो कर आते थे, स्वस्थ सभी रहते थे
लेकिन पढ़ने की खातिर हम, शहर में ही रहते थे ।

बक्से में सब मिला पिटारा, यादें हो गईं ताजा
भूल गए वो सादा जीवन, किससे करेंगे साझा
अब हम दादा-दादी हैं पर, कुछ भी ना कर पाते
क्योंकि बच्चे अब छुट्टी में ,परदेस घूमने जाते ।

अब तहखाना होता है पर, बक्सा ना होता है
ना वैसे गुड्डे -गुड़िया का, ब्याह कोई करता है
ना दादी की चिट्ठी होती, ना पीपल की छाँव
कृत्रिम जीवन हुआ आज है, ना मिलता विश्राम ।
-०-
पता:
श्रीमती सुशीला शर्मा 
जयपुर (राजस्थान) 
-०-


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सेनानी (लघुकथा) - डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

सेनानी
(लघुकथा)
"सेठजी, मेरे लिए सफेद रंग का पंद्रह मीटर और हल्का नीला रंग का पाँच मीटर कॉटन कपड़ा निकाल दीजिएगा।" रग्घू दर्जी ने कहा।
"क्या कर रहा है रग्घू इतना सूती कपड़ा ?" दो दिन पहले भी दस मीटर ले कर गया था।" सेठजी ने पूछा।
"मास्क बना रहा हूँ सेठजी। बहुत माँग है। कोरोना वायरस का कहर तो आप देख ही रहे हैं। अभी और बनाऊँगा।" रग्घू ने बताया।
"अरे वाह, तुम्हारी तो लॉटरी निकल गई। पाँच रुपए की लागत में डेढ़-दो सौ रुपये तक अंदर कर रहे हो।" सेठ जी ने आँख मारते हुए कहा।
"ऐसी कोई बात नहीं है सेठजी।" रग्घू ने कहा।
"मैं सब समझता हूँ रग्घू। चलो मैं तुम्हें एक जबरदस्त ऑफर देता हूँ। तुम जितना चाहे मेरी दुकान से कपड़े ले लो, और मास्क बनाओ और उसे मुझे ही बेच दो। मैं तुम्हें प्रत्येक मास्क का डेढ़ सौ रुपये दूँगा। बोलो मंजूर।" सेठ जी उत्साहपूर्वक बोले।
"माफ कीजिएगा सेठजी। मुझे ये सौदा मंजूर नहीं है। मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता, जिसकी मंजूरी मेरी अंतरात्मा न दे।" रग्घू ने हाथ जोड़ दिए।
"लगता है तू पगला गया है। ऐसे तो तू जिंदगी भर गरीब के गरीब ही रहेगा।" सेठ जी ने उसे ललचाया।
"आप कुछ भी समझ सकते हैं सेठ जी। मैं अपना सिद्धांत नहीं बदर सकता। आज देशवासियों की सेवा का अवसर मिला है तो पीछे नहीं हटूँगा। कोरोना वायरस के विरुद्ध जारी संघर्ष में मेरा पूरा परिवार अपने स्तर पर लगा हुआ है। हम पति-पत्नी लगातार मास्क बना रहे हैं, और हमारे दोनों बच्चे मात्र दस रुपए प्रति मास्क की दर पर बेच रहे हैं, जबकि कुछ लोग बाजार में यह डेढ़ से दो सौ रुपए में भी बेच रहे हैं। और हाँ, हम एक ग्राहक को अधिकतम दो ही बेचते हैं।" रग्घू ने बताया।
"तभी तो कह रहा हूँ कि तुम ही नहीं, तुम्हारा पूरा परिवार पगला गया है।" सेठ जी ने खिसियानी आवाज में कहा।
"सेठ जी, जब महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे लोग अपने सारे ऐश ओ आराम छोड़कर देश की सेवा का संकल्प लिए, तब लोगों ने उन्हें भी पागल ही समझा था। पर आज.... कोरोना के विरुद्ध संघर्ष में सिर्फ डॉक्टर और सरकार की भागीदारी जरूरी नहीं, हम सबकी भागीदारी जरूरी है। यहाँ हम सबको सेनानी बनना होगा, जब हम सभी अपने-अपने स्तर पर इस लड़ाई में भागीदारी करेंगे, तभी इसे परास्त कर सकेंगे। वरना..." रग्घू अपनी ही रौ में बोलता चला गया।
"मुझे माफ कर दो रग्घू भाई। मैं कुछ देर के लिए स्वार्थी हो गया था। तुम्हारी बातों ने मेरी आँखें खोल दी है भाई। आज जब हमें अपने देश और देशवासियों की सेवा का अवसर मिला है तो पीछे नहीं हटना चाहिए। मैं भी तुम्हारे इस मिशन में सहयोग करना चाहता हूँ। तुम्हें जितना चाहे, सूती कपड़ा मेरी दुकान से लो। मैं तुम्हें खरीदी मूल्य पर ही दूँगा, और अगर तुम चाहो तो तैयार मास्क मेरी दुकान में बेच सकते हो। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि उन्हें निर्धारित कीमत पर ही बेचूँगा। यही नहीं आज से बल्कि अभी से मेरे यहाँ काम करने वाले दोनों दर्जी प्रतिदिन कम से कम 50-50 मास्क सिलेंगे, जिन्हें मैं शाम को मंदिर के पास खड़े होकर जरूरतमंद लोगों को मुफ्त में बाँटूँगा।" सेठ जी प्रफुल्लित मन से बोले।
"वाह ! ये तो बहुत ही उत्तम विचार है सेठ जी। कोरोना के विरुद्ध हम सब मिलकर लड़ेंगे, तभी कामयाबी हासिल होगी।" रग्घू ने सेठ जी की ओर प्रशंसा भरी नजरों से देखते हुए कहा।
"हारना तो हम भारतीय नहीं जानते। जीतेंगे तो हमीं रग्घू। चलो अभी से मिशन पर लग जाते हैं।" सेठ जी अपने दोनों दर्जियों को बुलाकर आगे की रणनीति समझाने लगे।
-०-
पता: 
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर (छत्तीसगढ़)

-०-

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अपनत्व का भाव भरें (कविता) - मोनिका शर्मा 'मन'

अपनत्व का भाव भरें

(कविता)
विचारों की ज्योति जला कर
अंधियारे को दूर करें
अपनत्व का दीपक बनाकर
स्नेह का बंधन बने बने बंधन बने बने।।

राह में जो कंकर पड़े हैं
उनको चुनकर हटाना हटाना होगा
यह गैरों का भाव सबसे पहले
खुद से ही मिटाना होगा ।।

फूलों को जो तोड़ -तोड़ कर
हम फेकेंगे तो
गुलिस्ता कैसे बनाएंगे
प्यार से एक दूसरे का हाथ का हाथ
थाम कर ही तो
काफिला बनाएंगे ।।

उस टूटते तारे से पूछो
किस जहां में वह जाएगा?
सबकी तमन्नाओं का
सहारा वह बन जाएगा।।

विचारों की ज्योति जलाकर
अंधियारे को दूर करें
अपनत्व का दीपक बनाकर
स्नेह का बंधन बने बने।।
-०-
पता:
मोनिका शर्मा 'मन'
गुरूग्राम (हरियाणा)

-०-

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