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Sunday, 26 July 2020

*संतुलन - करोना * (लघुकथा) - विवेक मेहता

 *संतुलन - करोना *
(लघुकथा)
          कुदरत की बनाई व्यवस्था में बदलाव आ रहे थे। कुछ प्रजातियों का विकास हो रहा था, संख्या में वृद्धि हो रही थी। तो कुछ का विनाश हो रहा था। प्रकृति भी उसी के अनुरूप बदलाव कर रही थी। कुछ बिगड़ता, कुछ बदलाव होते।फिर संतुलन बैठ जाता।
            प्रजातियों में से मानव ने बहुत विकास किया। अपने उत्थान के लिए मशीनों का निर्माण किया। धरती में पीढ़ियों के लिए जमा हो रहे पेट्रोल को खींच लिया। तरंगों का प्रयोग बढ़ा दिया। पहले डायनासोर नष्ट हुए थे, अब हुए गोरैया कव्वों का दिखना बंद हो गया। बे टपा टप यहां वहां गिरकर मरने लगे। कौन गिनती करता। कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और अन्य जहरीली गैसों ने वातावरण का संतुलन बिगाड़ दिया। गर्मी वर्षा शीत ऋतु गड़बड़ा गई। अब बारिश में ठंडी पड़ती, गर्मी में बर्फ गिरती और सर्दी में बारिश होती। कुछ मालूम नहीं पड़ता। मानव की प्रतिरोध शक्ति कम होने लगी। ओज़ोन की परत में छेद हो गए, फिर परत धीरे-धीरे नष्ट होने लगी। प्रकृति पर संतुलन बनाए रखने का दबाव बढ़ने लगा। प्रकृति हारती सी दिखने लगी। मानव जीता हुआ दिखलाई पड़ा।
         कई जाने अनजाने बदलाव से, ओज़ोन परत में हुए नुकसान से, हानिकारक किरणों और विषाणुओं ने वातावरण में प्रवेश किया। पृथ्वी पर असक्रिय वायरस सक्रिय हो गए। अपना संतुलन न बना पाने के कारण प्रकृति उन पर रोक न लगा सकी। वह मजबूत होते गए। जैसे गौरैया और अन्य पक्षी, जानवर नष्ट हुए थे अब मानव टपा टप मरने लगे। हाहाकार मच गया। मशीनें बंद हुई। वाहन बंद हुए। धुंआ, प्रदूषण कम हुआ। वातावरण में से जहर कम हुआ। ओज़ोन परत में सुधार हुआ। वातावरण की अन्य व्यवस्थाओं में भी मजबूती आई। परत फिर फैलने लगी। वातावरण में से विषैली किरणों और विषाणुओं का आना बंद हुआ तो अन्य चीजें भी सुधरने लगी। मानव का विनाश, विकास पर जोर कम होने लगा। प्रकृति फिर जीतने लगी। संतुलन बैठने लगा।
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पता:
विवेक मेहता
आदिपुर कच्छ गुजरात

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