जिंदगानी
(कविता)
आसमान मे धुन्ध सी जमा हो गयी।
सर्दी मे कोहरे की आंशका हो गयी।।
कोहरे में सब धुधला नजर आए।
जीवन मे कई बार जिन्दगानी धुधली सी नजर आए।।
आगे पीछे रास्ता नजर न आए।
धुन्ध की सफेदी मे धुधला सा नजर आए।।
क्यो शून्य सा हो जाता है मस्तिष्क।
जब करने हो जिन्दगानी के कठिन फैसले।।
डर लगता है शायद सही है या गलत।
या फिर दुनिया दारी की दीवार है रोके हुए।।
फैसले हमेशा अपनी जिन्दागानी को न देखकर।
समाज की शरम ने ले लिए।।
इन फैसलो से समाज के समाने अच्छे।
अपनी जिन्दगानी मे रह गये कच्चे।।
-०-
रश्मि शर्मा
आगरा(उत्तरप्रदेश)
-०-
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