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Wednesday, 12 February 2020

कालजयी दोहे (दोहे) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे


कालजयी दोहे
(दोहे)
नहीं शेष संवेदना,रोते हैं सब भाव !
अपने ही देने लगे,अब तो खुलकर घाव !!

स्वारथ का बाज़ार है,अपनापन व्यापार !
रिश्ते रिसने लग गये,खोकर सारा सार !

नित ही बढ़ती जा रही,अब तो देखो पीर !
अपनों के नित वार हैं,बरछी-भाला-तीर !!

अपनी-अपनी ढपलियां,सबके अपने राग ।
गुणा हो रहे स्वार्थ के,मतलब के सब भाग ।।

हर कोई बलवा करे,अमन-चैन है लुप्त ।
सबकी अपनी योजना,पर रखते सब गुप्त ।।

भीतर-बाहर भिन्नता,चहरे पर मुस्कान ।
अंदर दानव है डंटा,बाहर दैवी मान ।।

जंगल का पशु डर रहा,मानव से है दूर ।
रक़्त बहाना बन गया,इंसां का दस्तूर ।।

इंसां ना अब सात्विक,करता ना सत्कर्म ।
केवल निज ऐश्वर्य ही, उसका है अब धर्म ।।
-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मप्र)
-०-

***
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1 comment:

  1. आदरणीय बहुत ही उत्तम दोहों की रचना की है सादर धन्यवाद।

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