व्यर्थ
(व्यंग्य लघुकथा)
हनुमान : राम सीता के मिलन के लिए स्वर्ण लंका जला दी मैंने, वे छोटी-सी शंका से जीत न पाए| संघ फिर भी रह न पाए |
सीता : यह कैसी दुविधा है ,पवित्रता की सजा है ,मिलन से अच्छा बिरहा था, दिल तो एक दूसरे के करीब था|
राम : तुम्हें तो अग्नि जला ना पाई सारी उष्णता मेरी ही भीतर आई!
सीता : कुछ अनकहा सा दर्द है?
हनुमान : न जाने यहाँ कौन श्रेष्ठ है ? रावण जो सीता छू न पाया ! श्री राम जो उलझन सुलझा ना पाए! लगता है लंका दहन व्यर्थ हुआ--- रावण का बेवजह ही अंत हुआ...।
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रामकुमारी करनाहके 'अलबेली'
नागपुर (महाराष्ट्र)
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