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Monday, 18 November 2019

बेवजह (कविता) - डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'

बेवजह
(कविता)
हरे भरे ऊँचे-ऊँचे पेड़,
पेड़ो से ऊँचे यह हरे भरे पर्वत ।
इन ऊँचे पर्वतों पर,
ऊँची उड़ान भरते पंछियों के झुंड ।
अच्छे लगते हैं ।
गहरे, इन तरुओं के जंगल में,
संकरी पगडंडियों से घुमना ,
दूर खड़े अपने दोस्तों को,
बेवजह पुकारना।
अच्छा लगता है ।
आवाजें इन पंछियों की कर्णमधूर,
छोटी बड़ी तितलियों के रंगोंका यह नूर,
रंगोंकी यह विभिन्न मनभावन छटाएं ।
अच्छी लगती हैं ।
साथीयों के साथ, सारे गम भूलाकर,
स्वर्ग जैसी लगने वाली,
अनोखी दुनिया में आकर,
कुछ पल ही सहीं,गूम हो जाना।
अच्छा लगता है ।
नदियों की यह खामोशी,
झरने की यह जलधारा,
जलधारा में भीगकर,
झूम उठे जब तन-मन सारा,
तन मन का यूँ झूमना ।
अच्छा लगता है ।
-०-
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-

***
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