तुम सागर मत बनो
(कविता)
हे प्रिये तुम सागर मत बनो
ममें है चंचलता तुममें है शीतलता
जीवन है तुमसे ,तुमसे है सुंदरता
हे प्रिये तुम सागर मत बनो।
नजाकत है तुम में, तुम में है रवानगी
किया पर्वत भूतलसम फिर भी तुम में है सादगी
हे प्रिये तुम सागर मत बनो।
तुम प्राण हो ,नवजीवन हो
है तुम में क्षमता ,है तुमसे ही ममता
हे प्रिये तुम सागर मत बनो।
आकाश से आई हो या पर्वत पुत्री कहलाई हो
जीवनदायिनी हो तुम ,तुम ही तो माता कहलाई हो
हे प्रिये तुम सागर मत बनो।
तुम चलती हो तो चलता है जीवन संग तुम्हारे
मैं थमा तो बिखरी चारों ओर रेत हमारे
हे प्रिये तुम सागर मत बनो।
मुझसे मिलकर थम जाओगी रुक जाओगी
अस्तित्व तुम्हारा तुम स्वयं खो जाओगी
हे प्रिये तुम सागर मत बनो।
यह सच है मुझे सी विशाल तुम हो जाओगी
किंतु फिर तुम मिठास अपना खो जाओगी
हे प्रिये तुम सागर मत बनो।
नदी कहती है
हे प्रिये मुझे सागर बन जाने दे
जानती हूं मैं तुमसे मिलकर तुम सी हो जाऊंगी
विशालता में तेरी खुद भी मैं खो जाऊंगी।
तू विशाल है पर तुझको भी तो है प्यास मेरी
खोकर खुद को तुझको मैं पा जाऊंगी।
मत सोच मेरे अस्तित्व की फिर
मीठा जल बन तुझ संग मै बरसूँगी
तरणी है नाम मेरा संग तेरे मै भी तर जाऊँगी
तरे खारेपन को मुझ सी मिठास दे जाऊँगी।
हे प्रिये मुझे सागर बन जाने दे
लक्ष्य अपना मुझे पा लेने दे
हे प्रिये मुझे सागर बन जाने दे।
-०-
लक्ष्मी राव
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