मेरा आईना
(कविता)
पूछता है मेरा आईना
क्या यह तुम ही हो
पहचानने की कोशिश
करता हूं तुम्हें,
बहुत अनजानी सी
लगती हो तुम।
रोज देखा करता हूं
लेकिन कुछ बदली बदली
सी लगती हो तुम,
ना मुझे देख अब
संजती संवरती हो तुम।
क्या अब तुम्हारा
मन नहीं करता
अपने को मुझमें देखो तुम,
तुम्हें क्या पता मेरा
अनुभव क्या कहता है।
याद है आज भी वो दिन
जब बार-बार आकर तुम
निहारती थी मुझे देख,
लगाती थी बिंदी तो
कभी संवारती थी बाल
मुझे देख तुम।
ना चुराओ तुम नजरें मुझसे
सवारों अपनी लहराती लटों को
जिनमें हिना का रंग है,
लगाओ अपनी चोटी में
फूलों का गज़रा तुम।
अब तुम्हें क्या हो गया
-०-पता:
श्रीमती रमा भाटी
हार्दिक बधाई है मैम! आपको सुन्दर रचना के लिये।
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