(कविता)
कौन कहता है बेटियाँजिंदगी जीना नहीं जानती...
फर्क सिर्फ इतना है कि
वह अपनी खुशी की खातिर
दूसरों को गम देना नहीं जानती
बचपन से पराया धन होने की
सिख उन्हें है दी जाती
फिर भी अपनों को
उसी शिद्दत से हैं वह चाहती
कौन कहता है बेटियाँ
जिंदगी जीना नहीं जानती...
पापा की दुलारी बिटिया
पल भर में कब हो जाती इतनी बड़ी
परिवार पर जो आए कोई मुसिबत
पाते हैं हम उन्हें सबसे आगे खड़ी
लाखों पाबंदियों से है उसकी जिंदगी घिरी
हर सपनों की कुर्बानी देकर
बनती है वह सबके लिए भली
त्याग- ममता की मूरत
पता नहीं कब वह बन जाती
अपने ख्वाबों की बली चढ़ाकर
रांझे की हीर वे कहलातीं
कौन कहता है बेटियाँ
जिंदगी जीना नहीं जानती...
अपनी इक भूल के लिए
बरसों सहना पड़ता है
खुद को साबित करते-करते
सबकुछ गवाँना पड़ता है
फिर भी हर हाल में चेहरे से
मुस्कान अलग ना वो कर पाती
कौन कहता है बेटियाँ
जिंदगी जीना नहीं जानती...।
***
पता:
लक्ष्मी बाकेलाल यादव
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बहुत ही सुंदर कविता
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर कविता, हृदय से जोड़ी हुई कविता,
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteअप्रतिम कविता
ReplyDeleteबहुत अच्छि रचना
ReplyDeleteKharach khup chaan aahe
Deleteबहुत सुंदर कविता है अभिनंदन बहुत शुभ कामनाए !!!
ReplyDeleteखूप खूप आभारी आहे
DeleteSunder
ReplyDelete👌🚨🚨
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