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Wednesday, 29 July 2020

एक न्याय व्यवस्था (आलेख) - प्रशान्त 'प्रभंजन'

एक न्याय व्यवस्था
(आलोचना - आलेख)
           आलोचना की प्रकृति ही ऐसी है कि यह किसी को रास नहीं आती। इसे अक्सर बुराई करने वाला- 'निंदक' या फिर नकारात्मक छवि के रूप में- 'हतोत्साहित करने वाला' के रूप में देखा जाता है। हम मानव की भी प्रकृति अजीब है कि कोई प्रशंसा करे तो फूले नहीं समाते हैं और कमी निकाले तो फट पड़ते हैं। आलोचना यहीं मार खा जाती है क्योंकि यह न तो प्रशस्ति-पत्र है जो किसी की प्रशंसा करे और न ही निंदा का दस्तावेज जो किसी की बुराई करे।
           आलोचना इन दोनों के बीच का वह मार्ग है जो तिक्ष्ण विवेक व तर्क द्वारा ज्ञान व अनुभव के माध्यम से सृजनात्मकता की कसौटी पर किसी रचना या कला को कसती है। साधारण-सी बात हमारे समझ में क्यों नहीं आती कि जब हम किसी भौतिक वस्तु जो वास्तव में क्षणभंगुर है को खरीदते हैं तो उसके शुद्धता का परीक्षण करते हैं, कई बार उलट-पलट कर देखते हैं तो फिर शाश्वत सत्य को उद्घाटित करने वाली, समाज का दर्पण कहलाने वाली, राजनीतिक के आगे चलने वाली सृजनात्मकता को बिना कसौटी पर कसे कैसे स्वीकार कर लिया जाय। सृजन के क्षेत्र में आलोचक ही वह जौहरी है जो हीरे जैसी कालजयी रचनाओं के मूल को समाज के सामने लाता है जिसके आलोक में भावी पीढ़ी अपना मार्ग खोजती है।
           अक्सर लोग आलोचना को 'हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा' जैसे दो कौड़ी के मुहावरे द्वारा तौलने की कोशिश करते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि आलोचक सर्वप्रथम एक सजग पाठक होता है जो सिर्फ राय व्यक्त नहीं करता वरन् रचनाकार का मार्ग भी प्रशस्त करता है। वह आलोचना करते समय तटस्थ रहते हुए रचना व रचनाकार के अंत:स्थल तक उतरता है बिल्कुल एक गोताखोर की तरह व्यापक अध्ययन करके सागर की तलहटी में, तब जाकर कुछ काम की चीजें प्राप्त होती है जो एक व्यापक सामाजिक सांस्कृतिक हित धारण किए हुए होती है।
            एक सजग रचनाकार को भी अतिरिक्त सजगता की जरूरत होती है और यह कर्तव्य आलोचना बखूबी निभाती है। दुर्भाग्य से आलोचना स्वार्थपरक होकर रचना व रचनाकार को उठाने व गिराने का साधन-मात्र बनकर रह गई है, जबकि वास्तविकता यह है कि जैसे सामाजिक-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए न्याय-प्रणाली है, वैसे ही सृजन के क्षेत्र में आलोचना एक न्याय-व्यवस्था है। यह रूढ़ी, पूर्वाग्रह, प्रभाव, हित-अहित व व्यक्तिगत मनोभावों से मुक्त एक तटस्थ भाव है, जो व्यक्तिनिष्ट न होकर वस्तुनिष्ठ, संस्थात्मक न होकर समितात्मक क्रिया है जिसकी परिणति है- सृजन के शाश्वत सत्य को समाज के सामने प्रत्यक्ष करना।
             प्रेमचंद ने 'हंस' पत्रिका में कहानीकार जैनेन्द्र और भुवनेश्वर पर लिखा था, "जैनेन्द्र में यदि दुरूहता और भुवनेश्वर में कटुता कम हो जाय तो इनका भविष्य उज्जवल है" आज भी इन दोनों कथाकारों पर ये आरोप लगाए जाते हैं क्योंकि जैनेन्द्र में न दुरूहता कम हुई, न भुवनेश्वर में कटुता। यदि ये प्रेमचंद के सुझाव स्वीकार कर लिए होते तो कम-से-कम आज ये आरोप इन पर नहीं लगते।
           वाह-वाह, अति सुन्दर, अत्यन्त मार्मिक, शानदार, बहुत खूब, क्या लिखा है आपने या लाइक मिलना रचना की उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं है........ यह सिर्फ और सिर्फ पसंद और नापसंद तक सीमित है, जो कभी रचना को मिलता है तो कभी रचनाकार को। कभी पढ़े तो कभी बिना पढ़े भी। आलोचना इन सबसे परे है....... मुक्ति की राह दिखाता....... राग-द्वेष से मुक्त।                      
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पता:
प्रशान्त 'प्रभंजन'
कुशीनगर (उत्तरप्रदेश)

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