थकित यात्री
(कविता)
हे महामहिम !
विश्वास और भरोसे पर आपके ही
अनुरोध और आदेश पर आपके ही
कभी हाथ पकडकर मैने ही चलना सिखाया
कभी तो कन्धे पर ही उठाकर अपने चलना रहा
पीपल के छांव तले चमुतरे पर लाकर सुलाया
उतारकर अंगोछा अपने कन्धे से
आपके पसीने पोंछे और
पीडा से आहत आपके शिर पर लपेटा
अपने पैरो के जूत्ते उतारकर आप की पहनाये
भूख में खाना खिलाया
प्यास में पानी पिलाया
जो भी किया
जितना भी किया
सिर्फ और सिर्फ आपके आराम के लिए
सिर्फ आपके सुस्वास्थ्य की कामना करते हुए
दुःखों और पीडाओं की सीढिंया चढना रहा
बढी कठिनाई से मै आगे बढता रहा ।
विश्वास और भरोसे पर आपके ही
अनुरोध और आदेश पर आपके ही
कभी हाथ पकडकर मैने ही चलना सिखाया
कभी तो कन्धे पर ही उठाकर अपने चलना रहा
पीपल के छांव तले चमुतरे पर लाकर सुलाया
उतारकर अंगोछा अपने कन्धे से
आपके पसीने पोंछे और
पीडा से आहत आपके शिर पर लपेटा
अपने पैरो के जूत्ते उतारकर आप की पहनाये
भूख में खाना खिलाया
प्यास में पानी पिलाया
जो भी किया
जितना भी किया
सिर्फ और सिर्फ आपके आराम के लिए
सिर्फ आपके सुस्वास्थ्य की कामना करते हुए
दुःखों और पीडाओं की सीढिंया चढना रहा
बढी कठिनाई से मै आगे बढता रहा ।
मैने
अपनी पीडा आपको कभी नहीं सुनायी
फफोलेयुक्त हथेलियां नहीं देखायीं
फटी हुई एडियां नहीं दिखायी
शरीर पर उपरते हुए खेदस्रोतों को भी
दिखाना नहीं चाहा ।
आपके समक्ष
अपनी पीडा जो
विकृत पीठ और
पीडायुक्त अपना माया नहीं सहलाया
भूख और प्यास की तो बात ही नहीं की
आशा को ही मृतसञ्जीवनी मानता रहा
क्योंकि आप ही ने तो कहा था
‘मैं तुझे नन्दनवन की सैर कराऊंगा !’
उसी भरोसे पर
निरन्तर ढोंता रहा मैं आपको ।
फटी हुई एडियां नहीं दिखायी
शरीर पर उपरते हुए खेदस्रोतों को भी
दिखाना नहीं चाहा ।
आपके समक्ष
अपनी पीडा जो
विकृत पीठ और
पीडायुक्त अपना माया नहीं सहलाया
भूख और प्यास की तो बात ही नहीं की
आशा को ही मृतसञ्जीवनी मानता रहा
क्योंकि आप ही ने तो कहा था
‘मैं तुझे नन्दनवन की सैर कराऊंगा !’
उसी भरोसे पर
निरन्तर ढोंता रहा मैं आपको ।
क्षितिज में दिखने वाले
‘हां’ और ’ना’के भ्रामक दृश्य पर
नजर टिकाता रहा
चढाइयों पर
पैर कांपते रहे
पर मैं सपनों के संसार में
अठखेलियां करता रहा
आखिर सयकडों बार थकहाखर भी
बडी कठिनाई से आप को
शिखर पर पहुंचा तो
अकस्मात् आप स्वस्थ और
हंसमुख दिखने लगे
और मुझे
निर्दयता और कृतघ्नतापूर्वक
अपने उन्ही निर्मम हाथों से
मुझे उसी गर्त मे धकेल दिया
जहां से उठाकर मैने
आपको दिखाया था
सफलता का वह शिखर
मुझे लुढकता हुआ देखकर
आप हस्ने लगे अट्टहास करते हुए
कि, ‘आज मेरी यात्रा सम्पन्न हुयी !’
किन्तु मैं
लुढकता लुढकता
अनेक लुकिली चट्टानों पर ठोकर खाता
नीचे, उस से भी नीचे
गर्त पर जा गिरा शिर के बल
अर्धमृत अवस्था मे
और–
बहुत समय बाद
आयी मेरी चेतना वापस
तब वाक्य फूटा मेरे होंठो से
‘गन्तव्य अभी
दूर, बहुत दूर हैं
उन उँचे पहाडों से भी दूर
और फिर नजाने किस किसको
कब तक और कहाँ तक
ढोना हुआ मुझको !
किन्तु महामहिम !
मैं अनुमान नही लगा पा रहा हूँ कि
ये मेरा शरीर
कितना भारी हो गया हैं !
‘हां’ और ’ना’के भ्रामक दृश्य पर
नजर टिकाता रहा
चढाइयों पर
पैर कांपते रहे
पर मैं सपनों के संसार में
अठखेलियां करता रहा
आखिर सयकडों बार थकहाखर भी
बडी कठिनाई से आप को
शिखर पर पहुंचा तो
अकस्मात् आप स्वस्थ और
हंसमुख दिखने लगे
और मुझे
निर्दयता और कृतघ्नतापूर्वक
अपने उन्ही निर्मम हाथों से
मुझे उसी गर्त मे धकेल दिया
जहां से उठाकर मैने
आपको दिखाया था
सफलता का वह शिखर
मुझे लुढकता हुआ देखकर
आप हस्ने लगे अट्टहास करते हुए
कि, ‘आज मेरी यात्रा सम्पन्न हुयी !’
किन्तु मैं
लुढकता लुढकता
अनेक लुकिली चट्टानों पर ठोकर खाता
नीचे, उस से भी नीचे
गर्त पर जा गिरा शिर के बल
अर्धमृत अवस्था मे
और–
बहुत समय बाद
आयी मेरी चेतना वापस
तब वाक्य फूटा मेरे होंठो से
‘गन्तव्य अभी
दूर, बहुत दूर हैं
उन उँचे पहाडों से भी दूर
और फिर नजाने किस किसको
कब तक और कहाँ तक
ढोना हुआ मुझको !
किन्तु महामहिम !
मैं अनुमान नही लगा पा रहा हूँ कि
ये मेरा शरीर
कितना भारी हो गया हैं !
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पता:
बहुत ही सुन्दर समय को दरसाते हुये एक सार्थक कविता आँप को बहुत बहुत बधाई है सर!!
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