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Sunday 24 November 2019

सामाजिक मानव (कविता) - कीर्ति


सामाजिक मानव 
(कविता)
मानव इक सामाजिक प्राणी।
रिश्तों की मध्यस्थ है वानी।

कभी फोन चिट्ठी से करता।
खट्टी - मीठी बात सुहानी।

कभी हंसी के फव्वारे तो।
कभी आंख में आता पानी।

कभी उलझनों की बातें हैं।
कभी बात से ही आसानी।

जब मरती है बात पेट में।
घर में होती खींचा तानी।

बातों से ही शब्द झूठ के।
खुलकर होते पानी-पानी।

जब जब स्वयं सिमटता मानव।
करता केवल अपनी हानी।

सम्बन्धों की अमर बेल पर।
बातों की न हो मनमानी।
-०-
पता:
कीर्ति
आगरा (उत्तर प्रदेश)
-०-

***
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