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Saturday, 26 October 2019

मुखौटे (लघुकथा) - डॉ० भावना कुँअर (ऑस्ट्रेलिया)

मुखौटे
(लघुकथा)
आज मकान मालिक के घर में पूजा थी ठीक पिछले साल की तरह।किरायेदार मालती को लगा की चाची कल कहना भूल गई होंगी आज ही बुला लेगीं दरवाजे पर खड़ी आने-जाने वाली औरतों के पैर छूने मशगूल थी... छोटी जो थी सबसे।कॉलोनी की सभी औरतें पहचानती जो थी मालती को और प्यार भी बहुत करती थीं।सभी औरतें 

तकरीबन अन्दर आ चुकीं थी; पर मालती को किसी ने अन्दर आने को नहीं कहा।मालती समझ नहीं पाई की क्या बात है?तभी उसके कानों में पूजा के शुरु होने के स्वर गूँजे। वो मन में हजारों सवाल लिए अपने कमरे में चली गई,जाने कैसे दिल पर लगी थी कि अगले दिन भी मालती बाहर नहीं निकली। तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।जाकर दरवाज़ा खोला तो सामने चाचीजी खड़ी थी।मालती ने उनके पैर छूए;पर कोई हाथ आशीर्वाद में न उठा न ही कोई शब्द कानों में पड़ा। जो सुना वह ये था-"मालती तुम्हें लगा तो होगा कि कल की पूजा में मैंने तुम्हें नहीं बुलाया, जबकि पिछले साल बुलाया था। मैंने तुम्हें जानबूझकर नहीं बुलाया; क्योंकि पिछले साल तुम पति के साथ थीं ।अभी मैंने किसी से सुना है कि तुमने पति से अलग होने की अर्ज़ी दे रखी है। हाँ, मैंने ही तुम्हें बताया था कि तुम्हारे पीछे तुम्हारा पति किसी लड़की के साथ यहाँ पूरे दो हफ्ते रहा है। मैं जानती हूँ कि वो चरित्रहीन है,पर ये समाज है ना, चरित्रहीन पुरुष को तो स्वीकारता है; पर औरत सच्ची और सही भी हो तो दोषी उसे ही बताता है।कॉलोनी में तुम्हारे बारे में लोग भला-बुरा कह रहें हैं।मैं जानती हूँ- तुम बहुत अच्छी हो; पर मैं मज़बूर थी। ये पूजा सुहागनों की थी और अब तो तुम सुहागन नहीं हो ना बेटा !" 

सारी बातें मालती के कानों में पिघलें शीशे-सी चुभ रही थीं पर चेहरे पर एक अजीब सी कसैली मुस्कान थी,यही सोचकर कि चलो देर से ही सही पर पता तो चला कि लोग किस-किस तरह से क्या-क्या सोचते हैं। कितनी आसानी से लोग दो-दो मुखौटे पहनकर घूमते हैं।

डॉ० भावना कुँअर 
ऑस्ट्रेलिया (सिडनी)

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