तस्वीर
(कहानी)
एक आलीशान घर, जिसमें घर के सदस्यों से ज्यादा तो कमरे थे और हर कमरे में अनेकों तस्वीरें दीवारों पर टंगी हुई थी । परिवार के सदस्यों कि,भगवान कि और पूर्वजों कि ।कोफ्त होने लगती थी "स्निग्धा" को उनको देख देख कर । लंबी गोरी छरछरी काया और तीखे नयन नक्शों की स्वामिनी स्निग्धा कितनी ही बार अपनी मम्मी के गले में हाथ डाल कर बड़े प्यार से पूछती थी " मां किसी भी आर्ट गैलरी में इनसे बेहतर पेंटिंग मिलती हैं जिनको लगाने से हमारी दीवारें खिल उठेगी, जाने आपको कौनसा सुख मिलता हैं इन तस्वीरों को देखने झाड़ने और पौछनें में । आपको क्यों कोफ्त नही होती " और हर बार की तरह "नीमा" उसके गुलाबी गाल पर प्यार से थपकी लगा कर बोलती कुछ बातें उम्र और तजुर्बे से समझ आती है । "चल नाश्ता कर ले" कॉलेज के लिए देर हो जाएगी ।
ये आखिरी साल था स्निग्धा का "आर्ट स्कूल ऑफ लरनिंग एक्टिंग' का । बचपन से ठुमके लगाते लगाते और कुत्ते बिल्ली की आवाज़ निकालते लगभग आस पड़ोस में सबकी नकल उतारते स्निग्धा ने एक्टिंग को ही अपना पैशन बना लिया था । रात को सपने में भी वो हमेशा खुद को केवल स्टेज और स्क्रीन पर ही देखा करती थी ।
राधे ! हा प्यार से वो उसे राधे ही तो बुलाया करती थी । क्या करे बचपन में वो था ही इतना सुंदर बिल्कुल गोरा और मासूम तो स्कूल में उसे हर नाटक में राधा बना दिया जाता था । "प्रद्युम्न" तो कभी बुलाया ही नहीं "स्निग्धा" ने ।
समय बढ़ता गया और प्रद्युम्न एक सफल बिजनेस मैन बन गया। महाराष्ट्र के हर शहर में उसके रेस्टोरेंट हैं। जहां वो " देशी तड़का " नाम से मेक्सिकन ,इटालियन और कॉन्टिनेंटल व्यंजनों को देशी अंदाज़ में परोस कर दिन रात सफलता हासिल कर रहा है ।
स्निग्धा के तीसरे टीवी सीरियल की शूटिंग चल रही थी स्टाइलिश मेक अप और डिजाइनर साड़ी में क़यामत लग रही थी । किसी पार्टी सीन की तैयारी चल रही थी हाथ में ब्रांडेड पर्स लिए उसको एक गाने की पंक्ति गुनगुनानी थी...
ये दसवा रीटेक था बार बार पंक्ति भूल जाती थी तभी सामने से प्रद्युम्न आता दिखा और फिर.…"तेरा मेरा प्यार अमर फिर क्यो मुझको लगता हैं डर".…..."शानदार क्या बढ़िया परफॉर्मेंस दी आपने स्निग्धा जी " डायरेक्टर बोल उठा ।
प्रद्युम्न ने तभी इशारे से डायरेक्टर को पास बुलाया और इशारों में कहा अब बाकी की शूटिंग कल .….उस वक्त तो स्निग्धा ने कुछ नहीं कहा पर गाड़ी में बैठते ही बिफर पड़ी प्रद्युम्न पर "तंग अा गयी हूं मैं रोज रोज के मिलने मिलाने से " क्या कहा तुमने रोज ,"स्निग्धा आज पूरे एक महीने बाद हम मिल रहे हैं और वो भी जब मैं अपना सब काम केवल तुमसे मिलने के लिए छोड़ कर आया हूं तब " और उसके गाल पर प्यार से किस्स कर देता है । स्निग्धा अपना सारा गुस्सा एक मिनट में भूल जाती हैं और अपने सीधे हाथ से प्रद्युम्न का उल्टा हाथ कस कर पकड़ लेती हैं । फिर गाड़ी रुकती हैं "जस्सी ढाबे " पर, खुला बगीचा चारों ओर निवार की खाटे बिछी हुई और कुछ परिंदे पिंजरे में और कुछ परिंदे शाखाओं पर विचरण कर रहे हैं और चहक रहे । पिछले पांच साल से प्रद्युम्न को जब भी स्निग्धा से मिलना होता वो उसको हमेशा यही लेकर आता । एक तो ये जगह शहर से दूर है और यहां का पावन माहौल उसके मन को बहुत भाता है । स्निग्धा का हाथ पकड़े घंटों उससे बातें करना उसे बहुत पसंद था। धीर गंभीर प्रद्युम्न कितना चंचल हैं कोई स्निग्धा से पूछे ।
एक मिनट चुप नहीं होता "बस बोलता ही रहता मैं तुझसे बहुत प्यार करता हूं ! स्निग्धा जितनी बार पूछती उतनी बार वो यही कहता " मैं करता हूं तुझसे प्यार " बोल कैसे और क्या कर के यकीन दिलाऊं ? और उसके माथे पर किस्स कर के कहता "मैं हमेशा तुम्हारे हर फैसले में तुम्हारे साथ हूं " ।
तभी स्निग्धा कहती हैं सुनो, " बहुत जल्द मैं अपनी पहली पिक्चर साईंन करने वाली हूं " प्रद्युम्न उसको बहुत समझाता हैं," तुम्हे क्या जरूरत हैं इतना हाथ पांव मारने कि अच्छा खासा बिजनेस हैं अंकल का और मैं भी ठीक ठाक कमा लेता हूं ! तुम्हे और क्या पाने कि इच्छा है ? तुम्हारी हां पर ही टिकी हैं मेरी तो गाड़ी ...तुम आज हां बोलो मैं कल बारात लेे कर आता हूं । और स्निग्धा को आलिंगन कर कस के अपनी बाहों का हार पहना देता है ।
स्निग्धा बच्चों की तरह अड जाती हैं। मैंने बचपन से एक ही सपना देखा है कि मैं हीरोइन बनूं मेरी पिक्चर सुपर हिट जाए और मेरे पोस्टर हर जगह लगे । प्रद्युम्न उसे प्यार से गले लगा लेता हैं और पूछता हैं," तुम्हारे सपनों में, मैं कहां हूं स्निग्धा" ? वो इस बात का कोई जवाब नहीं देती । और पूरे रास्ते आधी रात जैसी शांति दोनों के बीच पसर जाती हैं। मगर प्रद्युम्न पूरे रास्ते उसका हाथ पकड़े पकड़े ही ड्राइविंग करता हैं । स्निग्धा को घर छोड़ते समय उसकी आंखों से आंसू छलक जाते हैं। केवल इतना कहता हैं कि तुम बदल रही हो । याद हैं पहले कैसे मिलने की जिद किया करती थी हमेशा, घंटों बातें किया करती थी बात ना हो तो कितना गुस्सा करती थी । और आज तुम्हारा ये हाल है की महीनों ना मिल पाओ तो भी तुम्हे कल ही मिले हो ऐसा लगता है । स्निग्धा, "प्यार करता हूं मैं तुमसे और तुम जितनी बार भी पूछोगी तो मैं हर बार ये ही बोलूंगा" मगर तुम शायद ....।
आज हिन्दुस्तान के हर शहर में स्निग्धा के नाम के बड़े बड़े पोस्टर लगे हैं एक दो तीन और जाने कितनी लगातार पिक्चरों के हिट होने के बाद आज उसका एक पांव कभी लंदन में होता तो एक पांव मुंबई में । पैसा शोहरत तो जैसे बरस रहा था आसमां से । पर अब थकान महसूस होने लगी थी । थक हार कर मुंबई के विशाल घर में जहां दस गाडियां बाहर पार्किंग में खड़ी थी और पंद्रह नौकर जो उस विशाल घर को दिन भर चमकाते रहते थे ।
कमी थी तो केवल एक सच्चे एहसास कि । पता नहीं क्यों आज सब कुछ याद आ रहा था, प्रद्युम्न का बार बार फोन करना, मिलने के लिए जिद करना, कितनी ही बार उसका अपना सब काम छोड़ कर घंटों सेट पर बैठे रहना केवल स्निग्धा से दो मिनट मिलने के लिए ।
अपना सीधा हाथ उठाकर, खुद अपने आप... अपने ही गालों को सहलाती हैं । पर लाख कोशिश कर के भी खुद अपने आप को किस्स नहीं कर पाती। कैसे रूबरू कराऊं उसके एहसास से खुदको ? अपने दोनो हाथों से खुद को भींच लेती हैं कैसे आखिर कैसे उसकी महक को महसूस करूं.... आखिर इतना लाचार क्यों हूं मैं.... खुदको आलिंगन क्यों नहीं कर सकती ।
पागलों की तरह घर की दीवारों को निहारने लगती हैं हर तरफ एक से एक बढ़कर पेंटिंग, बड़े बड़े पैंटर के द्वारा बनाई हुई उसकी तस्वीरों से कोफ़्त होने लगती हैं कितना निहारू खुदको हर समय । एक भी तस्वीर नहीं हैं किसी कि कोई तो होता... कोई एक तो होता जिसकी यादों को मैंने सहेजा होता । मां बाप से भी तो मैंने किनारा कर लिया था और अपनी ख्वाहिशों और अरमानों की दीवार के पार किसी को कभी आने ही कहां दिया मैंने । कितना वीरान लगता हैं घर अपनों के एहसास के बिना और उससे ज्यादा वीरान लगती है खाली दीवारें तस्वीर के बिना।-०-
रूपल उपाध्याय
B/2 - 303, मंगला ग्रिंस, तरसाली, बडदा, गुजरात पिन कोड : 390009
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