भारत–नेपाल बीच सांस्कृतिक सम्बन्ध का आयाम
(आलेख)
संस्कृति– संस्कृति को सहज अर्थ में समझा या कहा जाए तो संस्कृति का शाब्दिक अर्थ संस्कार होता है । संस्कृति एक अपने आप में व्यापक एवं अर्थपूर्ण शब्द है । जिसमें मानव जन्म से लेकर मरणोपरान्त का विस्तार है । खान–पान, शिल–स्वभाव, मानव चरित्र, पूजा–पाठ, श्राद्धकर्म से लेकर समस्त वैदिक संस्कृति, नदी–झड़ना, वन–पर्वत, सूर्य–चन्द्र इत्यादि सभी समूहो को समेटते हुए सम्पूर्ण प्रकृति का वर्णन इस संस्कृति में समाहित है । जिसमें भारत–नेपाल के बीच सदियों से लेकर आज तक के संस्कृति सम्बन्धाें को प्रगाढ़ वर्णनों को दर्शाया गया है ।
संस्कृति अर्थात् जो समूहो के द्वारा प्रदर्शन किया जाता है । यानी कि संपूर्ण समाज मिलकर जिस क्रिया–कलाप में सामिल होते हैैं । या फिर समूहों में मनाते हैं जैसे — दीवाली, होली, नवरात्रि, पहिरन, साज–सज्जा इत्यादि ऐसे विभिन्न त्योहार हैैं जिसे हम सम्पूर्ण राष्ट्रवासी मिलकर मनाते हैैं। तो यह हमारी संस्कृति कहलाती है और जिस संस्कृति को मनाते–मनाते हमारा एक संस्कार बन जाता है । अर्थात् संस्कृति से हीं संस्कार की उत्पति होती है । संस्कार को हम संक्षिप्त अर्थ में मानव व्यवहार भी कह सकते हैं । संस्कृति अर्थात् समूह के साथ किये जाने वाले और संस्कार किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा किये जाने वाले स्वभाव से अवगत कराता है ।
भारत–नेपाल में एक पौराणिक किंवदन्ति भी कहा गया है कि अतिथि देवो भव: अर्थात् अतिथि देवता के समान होते हैं । जिस कारण उन्हे देवता की तरह आदर सत्कार किया जाता है । तो एक दृष्टिकोण से अगर कहा जाए तो मानव को सम्मान करना, यह नेपाली एवं भारतीयों के संस्कार में हीं निहित हैैं ।
अगर एक भारतीय दूसरे नेपाली से प्रेम करते हैं । दोनों एक साथ मिलकर त्योहार मनाते हैं । एक आपस में अपनत्व का भाव बोध कराता है । विपदा के समय में एक दूसरे को सुरक्षा, सहयोग प्रदान करते हैंं । भूखे को खाना खिलातें हैं । समस्त नारियाँ मिल कर एक साथ तीज ब्रत मनाती हैं । शिवशंकर की कथा श्रवण करती हैं और रंग–बिरंगी साडि़या, साज–सज्जा एवं सुन्दर आभूषणों से सजती हैैं तो यह नेपाली–भारतीयों के संस्कार में हीं गुण व्याप्त है । यह उनकी सभ्यता कहलाती है । उनके संस्कार में ही आत्मीयता का बोध है । जिस कारण भारत–नेपाल दो अलग–अलग सीमांकित राष्ट्र होते हुए भी दोनों का अंतःकरण एक हीं है । एक शरीर का काम करता है तो दूसरी आत्मा की । जिसे सहज अर्थ में हम समानता, एकता या फिर सहजता भी कह सकते हैं । ऐतिहासिक्ता में दोनों देशों का एक हीं नामाकरण भारतवर्ष होने से हमारी संस्कृति भी मिलती–जुलती है और संस्कृति के मेल मिलाप से हमारा स्वभाव, संस्कार भी एक हीं है । यहाँ हम यह भी कह सकते हैैं कि भारत–नेपाल दोनों देशों में एक ही प्रकार के साज–सज्जा, कपड़े, यहाँ तक की हमारी सोच भी समान है और नारियाँ साड़ी भी बड़ी सौक से दोनो देशों में पहनती है, तो साड़ी हमारी हम दोनों देशों की सभ्यता कहलाती है और पहने की प्रक्रिया संस्कृति । साड़ी एक हीं प्रकार की होती है किन्तु उसे लगाने की शैली अलग–अलग होती हैं । जैसे– नेपाल के विभिन्न समूहों में फरक–फरक तरीके से नारियंाँ साड़ी पहनती हैं । तराई–पहाड़ में पहनने की अलग शैली है और हिमाल में अलग शैली है । उसी प्रकार भारत के विभिन्न राज्यों में साड़ी पहनने की शैली अलग–अलग है जैसे — नारियाँ कहीं घूँघट वाली साड़ी पहनती है तो कही ढेका बाँध कर पहनती हैैं । तो यह पहने की जो क्रिया–कलाप है वही संस्कृति कहलाती है । जो कि अलग–अलग स्थानों पर समूहों में मिलकर काम करने या किसी त्योहार को मनाने की अपनी–अपनी शैली होती है । उसी को हम संस्कृति कहते हैं ।
संस्कृति अर्थात् जो समूहाें को, समाजों को एकता बद्ध करती है । किसी राष्ट्र के मौलिकता को दर्शाती है । संस्कृति हर राष्ट्र की अपनी– अपनी होती है । जैसे हम किसी को देख कर बता सकते हैं कि यह तो पाश्चात्य लोगों की संस्कृति लगती है या फिर यह बौद्धिज्म की संस्कृति है या फिर हिन्दूओं की लगती है । यानी कि मानव के जीवन जीने की जो कला है, वस्त्र पहनने की जो शैली, मानव के जो आव भाव होते हैं तो वह भी हमें विभिन्न स्थानों के संस्कृति के बारे में परिचय कराती है । संस्कृति और संस्कार के बारे में विस्तृत चर्चा परिचर्चा करते–करते इसी बीच सभ्यता की भी बात आती है । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि आखिर यह सभ्यता शब्द कहाँ से आई है ? तो यहाँ हम संक्षिप्त रूप में कह सकते है कि सभ्यता की उत्पत्ति सभा से हुई है और सभा संस्कृति से आई है । संस्कृति समूह को एक वद्ध करती है, समूह सभा गठन करती है और सभा सभ्यता को जन्म देती है । सभा में जो लोग सामिल होते हैं । अर्थात् किसी कार्य को एकजूट होकर मिल–जुल कर कार्य करना । जहाँ एकताबद्ध होकर काम किया जाता है । वहाँ एकता का प्रतीक माना जाता है । किसी सभा में एकत्रित हुए मानवों को सभ्य कहा जाता है क्योंकि उनके अन्दर एकता का भाव होता है । जैसे सरकार अपने राष्ट्र के निर्माता माने जाते हैं । वे संपूर्ण राष्ट्र के हित में कार्य करते हैं । इसीलिए उन्हे सभ्य होना अनिवार्य है और जो सभ्य होते है वे आर्य कहलाते हैं । यहाँ एक फिर दूसरा सवाल उठता है कि आखिर यह आर्य शब्द कहाँ से आया ? आर्य के बारे में संक्षिप्त चर्चा ऊपर की पंक्ति में हो चुकी है । फिर भी यहाँ और कुछ बातें हैं जिन्हे हम यहाँ चर्चा करना चाहेंगे ।
आर्य को यहाँ ईश्वर पुत्र कहा गया है । आर्यः ईश्वर पुत्रः । अर्थात् आर्य सभ्य व्यक्ति से तालुक रखता है और जो ईश्वर के असली संतति होते हैं वह निःसंदेह सभ्य होते हैं । जो सभ्य होते हैं वे आर्य कहलाते हैं और आर्य से सभ्यता आती है । सभ्यता का जन्म सबसे पहले भारत में हुआ और भारत नें ही समस्त दुनियाँ को सभ्यता का पाठ सिखाया । खान–पान, बात–विचार, रख–रखाव, चाल–चलन इत्यादि । जब धरती पर सबसे पहले मानव पुत्र जन्म लिए यानि कि “मनु” तो उन्होने हीं मानव जीवन के लिए सुन्दर चरित्र का वर्णन किये और धरती पर अन्य समस्त मानवों को चरित्र की शिक्षा दी । अर्थात् हम यह भी कह सकते है कि मनु के द्वारा हीं चरित्र का निर्माण हुआ । जैसे कि बुद्धिज्म दर्शन में कहा गया है कि ष्खिभ बलम भित ष्खिभ। आप भी जिये और दूसरों को भी जीने दिजीए अर्थात् दूसरों के जीवन जीने में बाधक न बनिये और वहीं भारतीय सभ्यता है, भारतीय दार्शनिक चिन्तन है, तो उनका कहना है कि ष्खिभ बलम जभउि यतजभचक तय ष्खिभ की आप स्वंयम भी जीये और जो जीने वाले हैं उन्हे जीवन जीने में आप मद्दत कीजिए । अर्थात् संक्षिप्त में हम यह कह सकते हैं कि विश्व में सभ्यता का मूल केन्द्र भारत हीं है ।
चरित्रवान लोग जो होते है वे सभ्य होते हैं और जो सभ्य होते हैं वे संस्कारी होते है । अर्थात् चरित्र से संस्कार, संस्कार से सभ्यता, सभ्यता से सभा, सभा से एक बद्धता, और एक बद्धता से संस्कृति की जन्म हुई । माना जाए तो ये सब एक दूसरे के पूरक है । सांस्कृति का अर्थ किसी संदेश को नृत्य के द्वारा दर्शाया जाता है । उसे सांस्कृतिक कार्य–क्रम कहते है यानी कि सांस्कृतिक क्रिया–कलाप भी उसी संस्कृति अन्तर्गत आती है । सहज अर्थ में हम यहाँ कह सकते हैं कि किसी धर्म को, किसी पर्व या फिर कर्मकाण्ड हीं क्यों न हो समूह में मिल कर करने से, वह वहाँ की परम्परा बन जाती है और वही परम्परा वहाँ की संस्कृति बन जाती है । इसीलिए अगर धर्म–शास्त्र को अध्ययन किया जाए तो पहले भारत–नेपाल में कोई सीमा नही थी और इस संपूर्ण भूखण्ड को एक ही नाम से पुकारा जाता था । वह नाम था भारतवर्ष । जिसका जीता जागता प्रमाण अभी भी विभिन्न शास्त्र पुराणों में वर्णित है । इसलिए आज भारत–नेपाल सीमांकित होत हुए भी इन दोनों राष्ट्रों में मिलती–जुलती संस्कृति है । जिसका साक्षात प्रमाण हम यहाँ देख सकते हैं
हिन्दू धर्म एवं आर्य संस्कृति अनुसार कर्म करते समय अभी भी नेपाली हिन्दू समाज में संस्कृत के मन्त्रोंचारण के समय कहा जाता है कि “भारत वर्षे भरत खण्डे आर्यावर्तान्तर्गत हिमवत्खण्डे नैपालैकदेशे इह पुण्य भूमौ ।” कह कर संकल्प लेने की परम्परा विद्यमान है ।
विष्णु पुराण में भारत वर्ष के सीमारेखा को इस प्रकार से उल्लेख किया गया है —
उत्तरंयत् समुद्रस्य हिमादेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्ष तद् भारतं नाम भारतीय यत्र सन्ततिः ।।
अर्थात् समुद्र से उत्तर एवं हिमालय पर्वत से भी दक्षिण का जो वर्ष भूभाग है, वह भारत वर्ष है । यहाँ भारती अर्थात सरस्वती निवास करती हैं ।
इसी प्रकार अमर कोश में विन्ध्याचल और हिमालय के बीच के भूभाग को आर्यावर्त का संज्ञा दिया गया है ।
आर्यावर्तः पुण्यभूमि मध्यंविन्ध्यहिमालयो ।
विन्ध्याचल एवं हिमालय के बीच के पुण्यभूमि आर्यावर्त है । आर्यावर्त में भी गङ्गा और यमुना के बीच के अत्यन्त उर्वर भूमि है । हिमालय के पाँचखण्ड में एक खण्ड नेपाल है । हिमवत्खण्ड नेपाल में श्वेतधारा यानी सेतीगण्डकी और कृष्णधारा यानी कालीगण्डकी के बीच के भूभाग अन्तरवेदी हैं ।
भारतवर्ष के भूबनावट अधो त्रिकोणत्मक है । तन्त्रशास्त्र में अधो त्रिकोण को योनि का प्रतीक माना जाता है । योनि सृष्टि एवं प्रजनन का प्रतीक है । भारतवर्ष का यह अधो त्रिकोणात्मक भूगोल को तीन प्रमुख शक्तिपीठों ने अधो त्रिकोण का रूप दिया है । जैसे— ईशानकोण में आसाम का कामाख्या पीठ, दक्षिण में पूर्णगिरि पीठ और वायव्यकोण में काश्मीर के श्रीपीठ हैं । इस त्रिकोण के बैन्धवचक्र में केन्द्रबिन्दु के रूप में बिन्ध्याचल के बिन्ध्यवासिनी पीठ हैं । जिस कारण अखिल भारतवर्ष के केन्द्रबिन्दु बिन्ध्यवासिनी पीठ है ।
जिसका अनुवाद भी नेपाली से हिन्दी में किया गया है । बिन्ध्याचल पर्वत से आकर नेपाल के पोखरा शहर में बास करने से उनका पहला नाम बिन्ध्यवासिनी माता है औ दूसरी बात माता हम सबके भीतर विन्दुस्वरूप आत्मा के रूप में सदैव वास करती है । इसलिए उन्हे भक्तजन विन्दुवासिनी माता कहकर भी पुकारते हैं । उस किताब के अनुवाद कार्य अन्तर्गत अध्ययनोपरान्त भारत वर्ष की विशेषता के बारे में पता करने पर वहाँ उस किताब में विस्तृत वर्णन भी दिया गया है ।
नेपाल की राजधानी काठमांडो है । फिर भी पूर्व–पश्चिम में फैला हुआ नेपाल के केन्द्र बिन्दु का मतलब गण्डकी अञ्चल तनहुँ जिला है । जिस कारण भारत में अखिल भारतवर्ष के केन्द्र बिन्दु के रूप में गङ्गा के किनारे बिन्ध्याचल पर्वत में बिन्ध्यवासिनी पीठ है तो नेपाल में माछापुछ«े हिमाल के उपत्यका यानी घाटी और शुक्लधारा –सेतीगण्डकी ने अभिसिञ्चित अन्तरवेदी पोखरा में नेपाल के एक मात्र बिन्ध्यवासिनी माता का मन्दिर है ।
नर–नारायण दो तपस्वी थे । वे अपने तपस्या के प्रभाव से नर–नारायण दो देवता तुल्य बन गयें । भारत में बदरिकाश्रम (बद्री) में नर–नारायण नामक दो पर्वत हैं ।
तो नेपाल में भी माछापुछ हिमाल के दो सबसे ऊपरी नुकिले भागों को नर–नारायण का प्रतीक माना जाता है ।
संस्कृत के महाकवि कालिदास के कुमार सम्भव महाकाव्य के अनुसार कलियुग में देवता सब भारत वर्ष के उत्तर में हिमालय पर्वत के स्वरूप में हैं ।
संसार के सबसे पवित्र हिमालय कैलाशपर्वत एवं पुण्यदायिनी मानसरोवर चीन के स्वशासित क्षेत्र तिब्बत में अवस्थित है । इसी प्रकार संसार के दूसरे पवित्र हिमाल गौरीशंकर एवं पुण्यदायिनी सरोवर छोरोल्पा नेपाल में अवस्थित है । विश्व के सर्वोच्च शिखर सगरमाथा नेपाल में अवस्थित है । इसीलिए कहा जाता है कि सगरमाथा के ऊँचाई पर जब सूर्य की पहली किरण आती है तो संसार की सृष्टि का शुभारम्भ होता है । इसीलिए एक किवदन्ति यह भी है कि सृष्टि का शुभारम्भ नेपाल से होता है । यानी कि सूर्य एवं चन्द्र भी अपना कार्य दोनों देशो में कुछ मिनट के अन्तराल में समान रूप से रात–दिन करते हैं । इसके अतिरिक्ति नेपाल में धौलागिरि, नीलगिरि, अन्नपूर्ण, गणेश, कुम्भकर्ण, महालङ्गुर, कञ्चनजङ्घा इत्यादि पवित्र हिमालय हैं ।
संसार के सुप्रसिद्ध योनिपीठ असाम के कामरूप कामाख्या पीठ है । संसार के दूसरा प्रसिद्ध योनि पीठ नेपाल के गुहेश्वरी पीठ हैं । गुहेश्वरी पीठ के उपस्थिति से पूरे नेपाल को हीं एक शक्ति पीठ के रूप में माना गया है । भारत वर्ष के चार प्रमुख शक्ति पीठों की पूजा करते समय अधोत्रिकोण में यह चारों पीठों की पूजा करते समय केन्द्र में बाराणसी पीठ की पूजा की जाती है । मोहड़ा के तरफ कोण में कामाख्या पीठ, दाहिने कोण में नेपाल पीठ और बायाँ तरफ कोण में पौण्ड्रवद्र्धन पीठ (बंगाल में) की पूजा करने का विधान है ।
पवित्र मानसरोवर से बहती हुई कर्णाली नदी भारत में रामजन्म भूमि अयोध्या से होती हुई सरयु नाम से बहती है एवं गंगा में मिश्रित हो जाती है । सप्तगण्डकी और गंगा के संङ्गम हरिहरक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध है ।
दक्षिण भारत में सरस्वती नदी बहती है तो नेपाल में सरस्वती स्वरूपिणी वागमती नदी बहती है । नेपाल एवं भारत दोनों देशों में गोदावरी तीर्थ हैं । उन दोनों तीर्थ स्थानों पर विशाल मेला लगता है । दक्षिण भारत में कृष्ण और कावेरी उपत्यका में अमरावती कलाशैली का विकाश हुआ है । नेपाल में कालीगण्डकी के किनारे में अनेको वैष्णव तीर्थाें की स्थापना हुई है । भारत को चीन के सिल्क रोड में जोड़ने के लिए सब से नीचा और छोटा दूरी वाला रास्ता नेपाल के कालीगण्डकी करिडोर हीं है ।
नेपाल एक सार्वभौम देश है । फिर भी नेपाल–भारत दोनो देशों में एक ऐसी भाईचारा है जो की अन्य कहीं नहीं है । इन दोनों राष्ट्रों के बीच वास्तव में यह अनमोल संम्बन्ध है । जिस प्रकार से भारत और नेपाल में सांस्कृतिक और धार्मिक सम्बन्ध है । वैसा मानो तो दुनियाँ के सायद अन्य किसी मुल्क के साथ नही है । करीब २,५०,००० –दो सौ पचास हजार) नदियाँ नेपाल के सुन्दर मनमोहक हिमालय की आँचल से बहकर गुजरती हुई भारत तक पहुँचती है । भारत के नसों में नेपाल का पानी है । इसीलिए तो भारत और नेपाल के बीच इतनी आत्मीयता है, प्रगाढ सम्बन्ध है । यह हम नही कहते, यह तो नेपाल–भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक बातें और यहाँ तक की नदियाँ, झड़ना सम्पूर्ण प्रकृति बोलती है । जिसके अनेकों प्रमाण ऊपर एवं नीचे की पंक्तियों में वर्णित है ।
नेपाल में पवित्र शालग्राम काली गण्डकी के गर्भ में शिव स्वरूप शिवनाभ एवं विष्णु स्वरूप चक्रनाभ शालीग्राम पाएं जाते हैं । वर्णन तो सीमित स्थान एवं नाता सम्बन्धों का किया जाता है । किन्तु जो अगाध हो, जो असीमित हो, जिसकी कोई सीमा नही, ऐसे प्रेम को क्या हम वर्णन कर सकते हैं ? यहाँ तो हम कहाँ से शुरू करें और कहाँ जाकर खत्म करें । यह पता लगाना हम मानवों के लिए असंभव सा लगता है । यहाँ तो प्राकृतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, लौकिक की तो बात हीं नही है । यहाँ तक की देवी–देवता, नदियाँ सब इधर के ऊधर और ऊधर के इधर है । सब एक आपस में समाहित है, मानो जैसे— शरीर और आत्मा की अवस्था होती है । बाह ! क्या समागम है इन दोनों राष्ट्रों के बीच ।
विश्व के रक्षक विश्वनाथ काशी में विराजित हैं । उसी अनुसार यहाँ नेपाल में भक्तपुर के भैरवनाथ मन्दिर में काशी विश्वनाथ के शिर स्थापना किया गया है । नेपाल के राष्ट्रदेव ! पशुपतिनाथ हिमवन्त प्रदेश में विराजित केदारनाथ के शिर है । इसीलिए पशुपतिनाथ में केरल पद्धति अनुसार से वैदिक विधियों से पूजा करने का विधान है । नौ नाथ—चौरासी सिद्धों के चर्चा से तो नेपाल और भारत के सांस्कृतिक सम्बन्धों को और भी प्रगाढ बनाया है । भारतीय विद्वानों ने और उनके तिब्बती शिष्यों ने भारतीय गूढ़विद्या के आधार पर तिब्बती लामा बौद्धधर्म का विकास किये थे ।
दक्षिण भारत के रामेश्वरम में पाए जाने वाले शङ्ख नेपाल के हिमाली क्षेत्र के गुम्बाओं में बजाए जाते हैं । दक्षिण दिशा से शंङ्खनाद हो रहा है और उत्तर दिशा हिमालय से नदियाँ के जल की धारा ने शंख के कान में ऐसा मन्त्र फूँका है कि शंख ने हर्षित होकर अपने तन के मध्य से मीठी धारा को प्रवाहित होने के लिए रास्ता दे दिया है । भारत–नेपाल के बीच ऐसे कितने अनन्य सांस्कृति, धार्मिक सभ्यता है जिससे हम मानव अभी तक अनभिज्ञ हीं माने जाते है । कितने ऐसे स्थान, पर्वत, गुफा, मठ–मन्दिर, नदियाँ एवं वनप्रदेश है जो कि रहस्यमय है । इसी प्रकार भारत के मठ–मन्दिरों में पूजित देवी–देवताओं के ललाट पर नेपाल के हिमाली क्षेत्र के सुगन्धित कस्तूरी का लेप लगा कर मूर्ति को सजाया जाता है और आरती के समय में नेपाल के सफेद “चंवर” डुलाये जाते हैं ।
भारत के योगियों ने नेपाल के हिमाली कन्दराओं में आकर तपस्या किया करते थे और अपने द्वारा पाये गए ज्ञान से, भारत में जाकर ज्ञान का प्रचार–प्रसार करते थे । यहाँ तक कि साक्षात ईश्वर भी ध्याननिष्ठ होने के लिए हिमालय का आश्रय लेते थे । क्योंकि भारत में अधिक उष्णता के कारण उनका ध्यान भंग होने की संभावना रहती थी । जब अमृत मंथन के समय हलाहल विष निकला, तो दुनिया में हलचल मच गइर्, तब शंकर ने दुनिया के कल्याणार्थ हलाहल विष पान कर अपने कण्ठ में धारण करलिया, तत्पश्चात जब उनके गले में जलन होने लगा तो वे हिमालय की ओर भागे और त्रिशूली ताल यानी कि गोंसाइकुण्ड में समाधिस्थ हो शांति का अनुभव किये । वहाँ जाने वाले तीर्थयात्रियों को उस ताल में समाधि मे लीन शिवशंकर स्वरूप का दर्शन श्रद्धालु भक्तजनों को आज भी होता है । ऐसा तीर्थयात्रियों का कहना है । जिसका साक्षात् प्रमाण अभी भी गोंसाइकुण्ड है ।
नेपाल की बेटी जनकनन्दनी वैदेही सीता से अयोध्या के मर्यादा पुरूषोत्म श्रीराम ने विवाह किये थे । प्रकृति ने क्या सम्बन्ध जोड़ा है । क्या आत्मीयता है । भारत–नेपाल की सांस्कृति में, सच कहे तो विश्व में अनुपम मित्रता है । जिसका उदाहरण किसी अन्य देश के साथ कहीं भी नही है । नेपाल में जन्मे भगवान शाक्यमुनि बुद्ध ! जिन्होने भारत के बुद्धगया में बोधिज्ञान प्राप्त करके विश्व में शान्ति का संदेश फैलाएं थे । वर्तमान में १. काठमाण्डौ और बनारस २. जनकपुर और अयोध्या तथा लुम्बिनी और बुद्धगया के बीच भगिनी नगर का सम्बन्ध स्थापित किया गया है । अगर संक्षिप्त अर्थ में कहा जाए तो नेपाल और भारत के बीच यही है सांस्कृतिक सम्बन्ध । यह तो लघु रूप में सांस्कृति एवं धार्मिक सम्बन्धाें के कुछ संपदाओ को समेट कर दर्शाया गया है । परन्तु ऐसे हजारों परिवार है जहाँ भारत की बेटियाँ नेपाल में और नेपाल की बेटियाँ भारत मे हैं, यहाँ तक की रोजगारी के सम्बन्ध में भी ईधर के ऊधर रहते हैं । जिन्होने इन दोनों देशों पर आँच आने देना नही चाहते हैं । एक दूसरे से इसके कमी–कमजोरियों के बारे में सुनना तक नहीं चाहते हैं । जिसके कारण अधिकतम घर में पति–पत्नी के बीच द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है । अपने राष्ट्र के प्रति अगाध स्नेह के कारण संकटो के समय में प्राण न्योछावर करने के लिए भी तैयार रहते हैं । कृपया हमारी यही प्रार्थना है कि भारत–नेपाल के बीच यह अगाध सम्बन्ध एवं असिम स्नेह सदा बरकरार रहे ।
इन दोनो राष्ट्र की मिट्टी कोइ साधारण मिट्टी नहीं है । यह तो साक्षात देव भूमि है । इसके कहीं भी किसी प्रकार से कोई खण्ड होने का प्रमाण नही है और नही संभावना हीं है । इसीलिए पौराणिक ग्रन्थों में इसका एक ही नाम भारतवर्ष पाया जाता है । किन्तु आज के परिवेश में सीमा रेखा में परिवर्तित होते हुए भी, दोनों के नामाकरण अलग–अलग होते हुए भी आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है । यही है भारत–नेपाल के बीच सांस्कृतिक सम्बन्धों का आयाम । जिसे वद्र्धन एवं रक्षा करना हमारा कर्तव्य है । मानव धर्म भी यही सिखाता है और हमारा दायित्व भी यही बनता है ।
बिछुड़ कर भी कुछ ले आये हैं, यादें अपने साथ ।
दूर होकर भी एक हैं हम सब, भारत और नेपाल ।।
ऊपर आसमा नीचे धरती, बीच में हम सब साथ ।
आपस में फिर क्या दोष हमारे, आओ हम सब जीलें आज ।।
अगर न होते हम सब संग में, कैसे कहलाता यह भारतवर्ष ।
सुन्दर सभ्यता से सजी संस्कृति, जिसका नाम है भारत–नेपाल ।।
कल–कल करती नदियाँ बहती, धर्मस्थल है यह दोनों राष्ट्र ।
आचार, विचार, आत्मीय भावना से, बना है यह भूभाग ।।
(१. संदर्भ पुस्तिका –डा. गजमान गुरूङ्ग ।)
इति शुभम ।।
-०-
संगीता ठाकुर
जिला–ललितपुर, नेपाल, नगरपालिका–महालक्ष्मी, वाड नं. – ७ (नरकटे, टिकाथली), घर नं. ४१
ललितपुर (काठमांडू - नेपाल)
(आलेख)
संस्कृति– संस्कृति को सहज अर्थ में समझा या कहा जाए तो संस्कृति का शाब्दिक अर्थ संस्कार होता है । संस्कृति एक अपने आप में व्यापक एवं अर्थपूर्ण शब्द है । जिसमें मानव जन्म से लेकर मरणोपरान्त का विस्तार है । खान–पान, शिल–स्वभाव, मानव चरित्र, पूजा–पाठ, श्राद्धकर्म से लेकर समस्त वैदिक संस्कृति, नदी–झड़ना, वन–पर्वत, सूर्य–चन्द्र इत्यादि सभी समूहो को समेटते हुए सम्पूर्ण प्रकृति का वर्णन इस संस्कृति में समाहित है । जिसमें भारत–नेपाल के बीच सदियों से लेकर आज तक के संस्कृति सम्बन्धाें को प्रगाढ़ वर्णनों को दर्शाया गया है ।
संस्कृति अर्थात् जो समूहो के द्वारा प्रदर्शन किया जाता है । यानी कि संपूर्ण समाज मिलकर जिस क्रिया–कलाप में सामिल होते हैैं । या फिर समूहों में मनाते हैं जैसे — दीवाली, होली, नवरात्रि, पहिरन, साज–सज्जा इत्यादि ऐसे विभिन्न त्योहार हैैं जिसे हम सम्पूर्ण राष्ट्रवासी मिलकर मनाते हैैं। तो यह हमारी संस्कृति कहलाती है और जिस संस्कृति को मनाते–मनाते हमारा एक संस्कार बन जाता है । अर्थात् संस्कृति से हीं संस्कार की उत्पति होती है । संस्कार को हम संक्षिप्त अर्थ में मानव व्यवहार भी कह सकते हैं । संस्कृति अर्थात् समूह के साथ किये जाने वाले और संस्कार किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा किये जाने वाले स्वभाव से अवगत कराता है ।
भारत–नेपाल में एक पौराणिक किंवदन्ति भी कहा गया है कि अतिथि देवो भव: अर्थात् अतिथि देवता के समान होते हैं । जिस कारण उन्हे देवता की तरह आदर सत्कार किया जाता है । तो एक दृष्टिकोण से अगर कहा जाए तो मानव को सम्मान करना, यह नेपाली एवं भारतीयों के संस्कार में हीं निहित हैैं ।
अगर एक भारतीय दूसरे नेपाली से प्रेम करते हैं । दोनों एक साथ मिलकर त्योहार मनाते हैं । एक आपस में अपनत्व का भाव बोध कराता है । विपदा के समय में एक दूसरे को सुरक्षा, सहयोग प्रदान करते हैंं । भूखे को खाना खिलातें हैं । समस्त नारियाँ मिल कर एक साथ तीज ब्रत मनाती हैं । शिवशंकर की कथा श्रवण करती हैं और रंग–बिरंगी साडि़या, साज–सज्जा एवं सुन्दर आभूषणों से सजती हैैं तो यह नेपाली–भारतीयों के संस्कार में हीं गुण व्याप्त है । यह उनकी सभ्यता कहलाती है । उनके संस्कार में ही आत्मीयता का बोध है । जिस कारण भारत–नेपाल दो अलग–अलग सीमांकित राष्ट्र होते हुए भी दोनों का अंतःकरण एक हीं है । एक शरीर का काम करता है तो दूसरी आत्मा की । जिसे सहज अर्थ में हम समानता, एकता या फिर सहजता भी कह सकते हैं । ऐतिहासिक्ता में दोनों देशों का एक हीं नामाकरण भारतवर्ष होने से हमारी संस्कृति भी मिलती–जुलती है और संस्कृति के मेल मिलाप से हमारा स्वभाव, संस्कार भी एक हीं है । यहाँ हम यह भी कह सकते हैैं कि भारत–नेपाल दोनों देशों में एक ही प्रकार के साज–सज्जा, कपड़े, यहाँ तक की हमारी सोच भी समान है और नारियाँ साड़ी भी बड़ी सौक से दोनो देशों में पहनती है, तो साड़ी हमारी हम दोनों देशों की सभ्यता कहलाती है और पहने की प्रक्रिया संस्कृति । साड़ी एक हीं प्रकार की होती है किन्तु उसे लगाने की शैली अलग–अलग होती हैं । जैसे– नेपाल के विभिन्न समूहों में फरक–फरक तरीके से नारियंाँ साड़ी पहनती हैं । तराई–पहाड़ में पहनने की अलग शैली है और हिमाल में अलग शैली है । उसी प्रकार भारत के विभिन्न राज्यों में साड़ी पहनने की शैली अलग–अलग है जैसे — नारियाँ कहीं घूँघट वाली साड़ी पहनती है तो कही ढेका बाँध कर पहनती हैैं । तो यह पहने की जो क्रिया–कलाप है वही संस्कृति कहलाती है । जो कि अलग–अलग स्थानों पर समूहों में मिलकर काम करने या किसी त्योहार को मनाने की अपनी–अपनी शैली होती है । उसी को हम संस्कृति कहते हैं ।
संस्कृति अर्थात् जो समूहाें को, समाजों को एकता बद्ध करती है । किसी राष्ट्र के मौलिकता को दर्शाती है । संस्कृति हर राष्ट्र की अपनी– अपनी होती है । जैसे हम किसी को देख कर बता सकते हैं कि यह तो पाश्चात्य लोगों की संस्कृति लगती है या फिर यह बौद्धिज्म की संस्कृति है या फिर हिन्दूओं की लगती है । यानी कि मानव के जीवन जीने की जो कला है, वस्त्र पहनने की जो शैली, मानव के जो आव भाव होते हैं तो वह भी हमें विभिन्न स्थानों के संस्कृति के बारे में परिचय कराती है । संस्कृति और संस्कार के बारे में विस्तृत चर्चा परिचर्चा करते–करते इसी बीच सभ्यता की भी बात आती है । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि आखिर यह सभ्यता शब्द कहाँ से आई है ? तो यहाँ हम संक्षिप्त रूप में कह सकते है कि सभ्यता की उत्पत्ति सभा से हुई है और सभा संस्कृति से आई है । संस्कृति समूह को एक वद्ध करती है, समूह सभा गठन करती है और सभा सभ्यता को जन्म देती है । सभा में जो लोग सामिल होते हैं । अर्थात् किसी कार्य को एकजूट होकर मिल–जुल कर कार्य करना । जहाँ एकताबद्ध होकर काम किया जाता है । वहाँ एकता का प्रतीक माना जाता है । किसी सभा में एकत्रित हुए मानवों को सभ्य कहा जाता है क्योंकि उनके अन्दर एकता का भाव होता है । जैसे सरकार अपने राष्ट्र के निर्माता माने जाते हैं । वे संपूर्ण राष्ट्र के हित में कार्य करते हैं । इसीलिए उन्हे सभ्य होना अनिवार्य है और जो सभ्य होते है वे आर्य कहलाते हैं । यहाँ एक फिर दूसरा सवाल उठता है कि आखिर यह आर्य शब्द कहाँ से आया ? आर्य के बारे में संक्षिप्त चर्चा ऊपर की पंक्ति में हो चुकी है । फिर भी यहाँ और कुछ बातें हैं जिन्हे हम यहाँ चर्चा करना चाहेंगे ।
आर्य को यहाँ ईश्वर पुत्र कहा गया है । आर्यः ईश्वर पुत्रः । अर्थात् आर्य सभ्य व्यक्ति से तालुक रखता है और जो ईश्वर के असली संतति होते हैं वह निःसंदेह सभ्य होते हैं । जो सभ्य होते हैं वे आर्य कहलाते हैं और आर्य से सभ्यता आती है । सभ्यता का जन्म सबसे पहले भारत में हुआ और भारत नें ही समस्त दुनियाँ को सभ्यता का पाठ सिखाया । खान–पान, बात–विचार, रख–रखाव, चाल–चलन इत्यादि । जब धरती पर सबसे पहले मानव पुत्र जन्म लिए यानि कि “मनु” तो उन्होने हीं मानव जीवन के लिए सुन्दर चरित्र का वर्णन किये और धरती पर अन्य समस्त मानवों को चरित्र की शिक्षा दी । अर्थात् हम यह भी कह सकते है कि मनु के द्वारा हीं चरित्र का निर्माण हुआ । जैसे कि बुद्धिज्म दर्शन में कहा गया है कि ष्खिभ बलम भित ष्खिभ। आप भी जिये और दूसरों को भी जीने दिजीए अर्थात् दूसरों के जीवन जीने में बाधक न बनिये और वहीं भारतीय सभ्यता है, भारतीय दार्शनिक चिन्तन है, तो उनका कहना है कि ष्खिभ बलम जभउि यतजभचक तय ष्खिभ की आप स्वंयम भी जीये और जो जीने वाले हैं उन्हे जीवन जीने में आप मद्दत कीजिए । अर्थात् संक्षिप्त में हम यह कह सकते हैं कि विश्व में सभ्यता का मूल केन्द्र भारत हीं है ।
चरित्रवान लोग जो होते है वे सभ्य होते हैं और जो सभ्य होते हैं वे संस्कारी होते है । अर्थात् चरित्र से संस्कार, संस्कार से सभ्यता, सभ्यता से सभा, सभा से एक बद्धता, और एक बद्धता से संस्कृति की जन्म हुई । माना जाए तो ये सब एक दूसरे के पूरक है । सांस्कृति का अर्थ किसी संदेश को नृत्य के द्वारा दर्शाया जाता है । उसे सांस्कृतिक कार्य–क्रम कहते है यानी कि सांस्कृतिक क्रिया–कलाप भी उसी संस्कृति अन्तर्गत आती है । सहज अर्थ में हम यहाँ कह सकते हैं कि किसी धर्म को, किसी पर्व या फिर कर्मकाण्ड हीं क्यों न हो समूह में मिल कर करने से, वह वहाँ की परम्परा बन जाती है और वही परम्परा वहाँ की संस्कृति बन जाती है । इसीलिए अगर धर्म–शास्त्र को अध्ययन किया जाए तो पहले भारत–नेपाल में कोई सीमा नही थी और इस संपूर्ण भूखण्ड को एक ही नाम से पुकारा जाता था । वह नाम था भारतवर्ष । जिसका जीता जागता प्रमाण अभी भी विभिन्न शास्त्र पुराणों में वर्णित है । इसलिए आज भारत–नेपाल सीमांकित होत हुए भी इन दोनों राष्ट्रों में मिलती–जुलती संस्कृति है । जिसका साक्षात प्रमाण हम यहाँ देख सकते हैं
हिन्दू धर्म एवं आर्य संस्कृति अनुसार कर्म करते समय अभी भी नेपाली हिन्दू समाज में संस्कृत के मन्त्रोंचारण के समय कहा जाता है कि “भारत वर्षे भरत खण्डे आर्यावर्तान्तर्गत हिमवत्खण्डे नैपालैकदेशे इह पुण्य भूमौ ।” कह कर संकल्प लेने की परम्परा विद्यमान है ।
विष्णु पुराण में भारत वर्ष के सीमारेखा को इस प्रकार से उल्लेख किया गया है —
उत्तरंयत् समुद्रस्य हिमादेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्ष तद् भारतं नाम भारतीय यत्र सन्ततिः ।।
अर्थात् समुद्र से उत्तर एवं हिमालय पर्वत से भी दक्षिण का जो वर्ष भूभाग है, वह भारत वर्ष है । यहाँ भारती अर्थात सरस्वती निवास करती हैं ।
इसी प्रकार अमर कोश में विन्ध्याचल और हिमालय के बीच के भूभाग को आर्यावर्त का संज्ञा दिया गया है ।
आर्यावर्तः पुण्यभूमि मध्यंविन्ध्यहिमालयो ।
विन्ध्याचल एवं हिमालय के बीच के पुण्यभूमि आर्यावर्त है । आर्यावर्त में भी गङ्गा और यमुना के बीच के अत्यन्त उर्वर भूमि है । हिमालय के पाँचखण्ड में एक खण्ड नेपाल है । हिमवत्खण्ड नेपाल में श्वेतधारा यानी सेतीगण्डकी और कृष्णधारा यानी कालीगण्डकी के बीच के भूभाग अन्तरवेदी हैं ।
भारतवर्ष के भूबनावट अधो त्रिकोणत्मक है । तन्त्रशास्त्र में अधो त्रिकोण को योनि का प्रतीक माना जाता है । योनि सृष्टि एवं प्रजनन का प्रतीक है । भारतवर्ष का यह अधो त्रिकोणात्मक भूगोल को तीन प्रमुख शक्तिपीठों ने अधो त्रिकोण का रूप दिया है । जैसे— ईशानकोण में आसाम का कामाख्या पीठ, दक्षिण में पूर्णगिरि पीठ और वायव्यकोण में काश्मीर के श्रीपीठ हैं । इस त्रिकोण के बैन्धवचक्र में केन्द्रबिन्दु के रूप में बिन्ध्याचल के बिन्ध्यवासिनी पीठ हैं । जिस कारण अखिल भारतवर्ष के केन्द्रबिन्दु बिन्ध्यवासिनी पीठ है ।
जिसका अनुवाद भी नेपाली से हिन्दी में किया गया है । बिन्ध्याचल पर्वत से आकर नेपाल के पोखरा शहर में बास करने से उनका पहला नाम बिन्ध्यवासिनी माता है औ दूसरी बात माता हम सबके भीतर विन्दुस्वरूप आत्मा के रूप में सदैव वास करती है । इसलिए उन्हे भक्तजन विन्दुवासिनी माता कहकर भी पुकारते हैं । उस किताब के अनुवाद कार्य अन्तर्गत अध्ययनोपरान्त भारत वर्ष की विशेषता के बारे में पता करने पर वहाँ उस किताब में विस्तृत वर्णन भी दिया गया है ।
नेपाल की राजधानी काठमांडो है । फिर भी पूर्व–पश्चिम में फैला हुआ नेपाल के केन्द्र बिन्दु का मतलब गण्डकी अञ्चल तनहुँ जिला है । जिस कारण भारत में अखिल भारतवर्ष के केन्द्र बिन्दु के रूप में गङ्गा के किनारे बिन्ध्याचल पर्वत में बिन्ध्यवासिनी पीठ है तो नेपाल में माछापुछ«े हिमाल के उपत्यका यानी घाटी और शुक्लधारा –सेतीगण्डकी ने अभिसिञ्चित अन्तरवेदी पोखरा में नेपाल के एक मात्र बिन्ध्यवासिनी माता का मन्दिर है ।
नर–नारायण दो तपस्वी थे । वे अपने तपस्या के प्रभाव से नर–नारायण दो देवता तुल्य बन गयें । भारत में बदरिकाश्रम (बद्री) में नर–नारायण नामक दो पर्वत हैं ।
तो नेपाल में भी माछापुछ हिमाल के दो सबसे ऊपरी नुकिले भागों को नर–नारायण का प्रतीक माना जाता है ।
संस्कृत के महाकवि कालिदास के कुमार सम्भव महाकाव्य के अनुसार कलियुग में देवता सब भारत वर्ष के उत्तर में हिमालय पर्वत के स्वरूप में हैं ।
संसार के सबसे पवित्र हिमालय कैलाशपर्वत एवं पुण्यदायिनी मानसरोवर चीन के स्वशासित क्षेत्र तिब्बत में अवस्थित है । इसी प्रकार संसार के दूसरे पवित्र हिमाल गौरीशंकर एवं पुण्यदायिनी सरोवर छोरोल्पा नेपाल में अवस्थित है । विश्व के सर्वोच्च शिखर सगरमाथा नेपाल में अवस्थित है । इसीलिए कहा जाता है कि सगरमाथा के ऊँचाई पर जब सूर्य की पहली किरण आती है तो संसार की सृष्टि का शुभारम्भ होता है । इसीलिए एक किवदन्ति यह भी है कि सृष्टि का शुभारम्भ नेपाल से होता है । यानी कि सूर्य एवं चन्द्र भी अपना कार्य दोनों देशो में कुछ मिनट के अन्तराल में समान रूप से रात–दिन करते हैं । इसके अतिरिक्ति नेपाल में धौलागिरि, नीलगिरि, अन्नपूर्ण, गणेश, कुम्भकर्ण, महालङ्गुर, कञ्चनजङ्घा इत्यादि पवित्र हिमालय हैं ।
संसार के सुप्रसिद्ध योनिपीठ असाम के कामरूप कामाख्या पीठ है । संसार के दूसरा प्रसिद्ध योनि पीठ नेपाल के गुहेश्वरी पीठ हैं । गुहेश्वरी पीठ के उपस्थिति से पूरे नेपाल को हीं एक शक्ति पीठ के रूप में माना गया है । भारत वर्ष के चार प्रमुख शक्ति पीठों की पूजा करते समय अधोत्रिकोण में यह चारों पीठों की पूजा करते समय केन्द्र में बाराणसी पीठ की पूजा की जाती है । मोहड़ा के तरफ कोण में कामाख्या पीठ, दाहिने कोण में नेपाल पीठ और बायाँ तरफ कोण में पौण्ड्रवद्र्धन पीठ (बंगाल में) की पूजा करने का विधान है ।
पवित्र मानसरोवर से बहती हुई कर्णाली नदी भारत में रामजन्म भूमि अयोध्या से होती हुई सरयु नाम से बहती है एवं गंगा में मिश्रित हो जाती है । सप्तगण्डकी और गंगा के संङ्गम हरिहरक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध है ।
दक्षिण भारत में सरस्वती नदी बहती है तो नेपाल में सरस्वती स्वरूपिणी वागमती नदी बहती है । नेपाल एवं भारत दोनों देशों में गोदावरी तीर्थ हैं । उन दोनों तीर्थ स्थानों पर विशाल मेला लगता है । दक्षिण भारत में कृष्ण और कावेरी उपत्यका में अमरावती कलाशैली का विकाश हुआ है । नेपाल में कालीगण्डकी के किनारे में अनेको वैष्णव तीर्थाें की स्थापना हुई है । भारत को चीन के सिल्क रोड में जोड़ने के लिए सब से नीचा और छोटा दूरी वाला रास्ता नेपाल के कालीगण्डकी करिडोर हीं है ।
नेपाल एक सार्वभौम देश है । फिर भी नेपाल–भारत दोनो देशों में एक ऐसी भाईचारा है जो की अन्य कहीं नहीं है । इन दोनों राष्ट्रों के बीच वास्तव में यह अनमोल संम्बन्ध है । जिस प्रकार से भारत और नेपाल में सांस्कृतिक और धार्मिक सम्बन्ध है । वैसा मानो तो दुनियाँ के सायद अन्य किसी मुल्क के साथ नही है । करीब २,५०,००० –दो सौ पचास हजार) नदियाँ नेपाल के सुन्दर मनमोहक हिमालय की आँचल से बहकर गुजरती हुई भारत तक पहुँचती है । भारत के नसों में नेपाल का पानी है । इसीलिए तो भारत और नेपाल के बीच इतनी आत्मीयता है, प्रगाढ सम्बन्ध है । यह हम नही कहते, यह तो नेपाल–भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक बातें और यहाँ तक की नदियाँ, झड़ना सम्पूर्ण प्रकृति बोलती है । जिसके अनेकों प्रमाण ऊपर एवं नीचे की पंक्तियों में वर्णित है ।
नेपाल में पवित्र शालग्राम काली गण्डकी के गर्भ में शिव स्वरूप शिवनाभ एवं विष्णु स्वरूप चक्रनाभ शालीग्राम पाएं जाते हैं । वर्णन तो सीमित स्थान एवं नाता सम्बन्धों का किया जाता है । किन्तु जो अगाध हो, जो असीमित हो, जिसकी कोई सीमा नही, ऐसे प्रेम को क्या हम वर्णन कर सकते हैं ? यहाँ तो हम कहाँ से शुरू करें और कहाँ जाकर खत्म करें । यह पता लगाना हम मानवों के लिए असंभव सा लगता है । यहाँ तो प्राकृतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, लौकिक की तो बात हीं नही है । यहाँ तक की देवी–देवता, नदियाँ सब इधर के ऊधर और ऊधर के इधर है । सब एक आपस में समाहित है, मानो जैसे— शरीर और आत्मा की अवस्था होती है । बाह ! क्या समागम है इन दोनों राष्ट्रों के बीच ।
विश्व के रक्षक विश्वनाथ काशी में विराजित हैं । उसी अनुसार यहाँ नेपाल में भक्तपुर के भैरवनाथ मन्दिर में काशी विश्वनाथ के शिर स्थापना किया गया है । नेपाल के राष्ट्रदेव ! पशुपतिनाथ हिमवन्त प्रदेश में विराजित केदारनाथ के शिर है । इसीलिए पशुपतिनाथ में केरल पद्धति अनुसार से वैदिक विधियों से पूजा करने का विधान है । नौ नाथ—चौरासी सिद्धों के चर्चा से तो नेपाल और भारत के सांस्कृतिक सम्बन्धों को और भी प्रगाढ बनाया है । भारतीय विद्वानों ने और उनके तिब्बती शिष्यों ने भारतीय गूढ़विद्या के आधार पर तिब्बती लामा बौद्धधर्म का विकास किये थे ।
दक्षिण भारत के रामेश्वरम में पाए जाने वाले शङ्ख नेपाल के हिमाली क्षेत्र के गुम्बाओं में बजाए जाते हैं । दक्षिण दिशा से शंङ्खनाद हो रहा है और उत्तर दिशा हिमालय से नदियाँ के जल की धारा ने शंख के कान में ऐसा मन्त्र फूँका है कि शंख ने हर्षित होकर अपने तन के मध्य से मीठी धारा को प्रवाहित होने के लिए रास्ता दे दिया है । भारत–नेपाल के बीच ऐसे कितने अनन्य सांस्कृति, धार्मिक सभ्यता है जिससे हम मानव अभी तक अनभिज्ञ हीं माने जाते है । कितने ऐसे स्थान, पर्वत, गुफा, मठ–मन्दिर, नदियाँ एवं वनप्रदेश है जो कि रहस्यमय है । इसी प्रकार भारत के मठ–मन्दिरों में पूजित देवी–देवताओं के ललाट पर नेपाल के हिमाली क्षेत्र के सुगन्धित कस्तूरी का लेप लगा कर मूर्ति को सजाया जाता है और आरती के समय में नेपाल के सफेद “चंवर” डुलाये जाते हैं ।
भारत के योगियों ने नेपाल के हिमाली कन्दराओं में आकर तपस्या किया करते थे और अपने द्वारा पाये गए ज्ञान से, भारत में जाकर ज्ञान का प्रचार–प्रसार करते थे । यहाँ तक कि साक्षात ईश्वर भी ध्याननिष्ठ होने के लिए हिमालय का आश्रय लेते थे । क्योंकि भारत में अधिक उष्णता के कारण उनका ध्यान भंग होने की संभावना रहती थी । जब अमृत मंथन के समय हलाहल विष निकला, तो दुनिया में हलचल मच गइर्, तब शंकर ने दुनिया के कल्याणार्थ हलाहल विष पान कर अपने कण्ठ में धारण करलिया, तत्पश्चात जब उनके गले में जलन होने लगा तो वे हिमालय की ओर भागे और त्रिशूली ताल यानी कि गोंसाइकुण्ड में समाधिस्थ हो शांति का अनुभव किये । वहाँ जाने वाले तीर्थयात्रियों को उस ताल में समाधि मे लीन शिवशंकर स्वरूप का दर्शन श्रद्धालु भक्तजनों को आज भी होता है । ऐसा तीर्थयात्रियों का कहना है । जिसका साक्षात् प्रमाण अभी भी गोंसाइकुण्ड है ।
नेपाल की बेटी जनकनन्दनी वैदेही सीता से अयोध्या के मर्यादा पुरूषोत्म श्रीराम ने विवाह किये थे । प्रकृति ने क्या सम्बन्ध जोड़ा है । क्या आत्मीयता है । भारत–नेपाल की सांस्कृति में, सच कहे तो विश्व में अनुपम मित्रता है । जिसका उदाहरण किसी अन्य देश के साथ कहीं भी नही है । नेपाल में जन्मे भगवान शाक्यमुनि बुद्ध ! जिन्होने भारत के बुद्धगया में बोधिज्ञान प्राप्त करके विश्व में शान्ति का संदेश फैलाएं थे । वर्तमान में १. काठमाण्डौ और बनारस २. जनकपुर और अयोध्या तथा लुम्बिनी और बुद्धगया के बीच भगिनी नगर का सम्बन्ध स्थापित किया गया है । अगर संक्षिप्त अर्थ में कहा जाए तो नेपाल और भारत के बीच यही है सांस्कृतिक सम्बन्ध । यह तो लघु रूप में सांस्कृति एवं धार्मिक सम्बन्धाें के कुछ संपदाओ को समेट कर दर्शाया गया है । परन्तु ऐसे हजारों परिवार है जहाँ भारत की बेटियाँ नेपाल में और नेपाल की बेटियाँ भारत मे हैं, यहाँ तक की रोजगारी के सम्बन्ध में भी ईधर के ऊधर रहते हैं । जिन्होने इन दोनों देशों पर आँच आने देना नही चाहते हैं । एक दूसरे से इसके कमी–कमजोरियों के बारे में सुनना तक नहीं चाहते हैं । जिसके कारण अधिकतम घर में पति–पत्नी के बीच द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है । अपने राष्ट्र के प्रति अगाध स्नेह के कारण संकटो के समय में प्राण न्योछावर करने के लिए भी तैयार रहते हैं । कृपया हमारी यही प्रार्थना है कि भारत–नेपाल के बीच यह अगाध सम्बन्ध एवं असिम स्नेह सदा बरकरार रहे ।
इन दोनो राष्ट्र की मिट्टी कोइ साधारण मिट्टी नहीं है । यह तो साक्षात देव भूमि है । इसके कहीं भी किसी प्रकार से कोई खण्ड होने का प्रमाण नही है और नही संभावना हीं है । इसीलिए पौराणिक ग्रन्थों में इसका एक ही नाम भारतवर्ष पाया जाता है । किन्तु आज के परिवेश में सीमा रेखा में परिवर्तित होते हुए भी, दोनों के नामाकरण अलग–अलग होते हुए भी आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है । यही है भारत–नेपाल के बीच सांस्कृतिक सम्बन्धों का आयाम । जिसे वद्र्धन एवं रक्षा करना हमारा कर्तव्य है । मानव धर्म भी यही सिखाता है और हमारा दायित्व भी यही बनता है ।
बिछुड़ कर भी कुछ ले आये हैं, यादें अपने साथ ।
दूर होकर भी एक हैं हम सब, भारत और नेपाल ।।
ऊपर आसमा नीचे धरती, बीच में हम सब साथ ।
आपस में फिर क्या दोष हमारे, आओ हम सब जीलें आज ।।
अगर न होते हम सब संग में, कैसे कहलाता यह भारतवर्ष ।
सुन्दर सभ्यता से सजी संस्कृति, जिसका नाम है भारत–नेपाल ।।
कल–कल करती नदियाँ बहती, धर्मस्थल है यह दोनों राष्ट्र ।
आचार, विचार, आत्मीय भावना से, बना है यह भूभाग ।।
(१. संदर्भ पुस्तिका –डा. गजमान गुरूङ्ग ।)
इति शुभम ।।
-०-
संगीता ठाकुर
जिला–ललितपुर, नेपाल, नगरपालिका–महालक्ष्मी, वाड नं. – ७ (नरकटे, टिकाथली), घर नं. ४१
ललितपुर (काठमांडू - नेपाल)
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