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Wednesday, 6 May 2020

*मजदूर या मजबूर* (ग़ज़ल) - प्रशान्त कुमार 'पी.के.'

*मजदूर या मजबूर*

(ग़ज़ल) 

पसीने की कमाई से वो अपना घर बनाता है।
धनी कोई न जाने क्यों हंसी उसकी उड़ाता है।

हथौड़े, फाबड़े, से यन्त्रों का उससे अजब रिश्ता,
वो रातोदिन सदा जगकर पसीना खूँ बहाता है।।

सँजोता दिल में अरमाँ वो सुबह से शाम तक लगकर,
मकां खुद का न बना पाए मगर सबका बनाता है।।

करे औलाद की खातिर कठिन श्रम जाँ लगाकर वो,
ठिठुरता स्वयं पर उनको रजाई में सुलाता है।।

रुलाती जिंदगी की कशमकश "पी.के." उसे हर पल ।
स्वजन की खुशियों की खातिर वो निज आँसू छिपाता है।।
-०-
पता -
प्रशान्त कुमार 'पी.के.'
हरदोई (उत्तर प्रदेश)
-०-

***
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