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Sunday, 12 January 2020

ये औरतें (कविता) - जगदीश 'गुप्त'


ये औरतें
(कविता)
गोबर के कंडे थाप रहीं
गांव की औरतें
जंगल से लकड़ी काटकर
चूल्हा सुलगाती गांव की औरतें
अपने सुख को दरकिनार कर
गृहस्थी चला रही ये औरतें

एक रु. किलो गेंहू
दो रु. किलो चांवल की
सौगात पाकर
दारू गांजा पीकर मदहोश मुखिया
इनके मर्द होने का रौब सहती औरतें

घर - घर बरतन मांजती
शहर की अनपढ़ औरतें
नौनिहालों को छाती से लगाये
लोरी गाकर सुलाती फिर
चूना - गारे के काम पर लग जाती
शहर की अनपढ़ औरतें

खेतों में खलिहानों में
कल - कारखानों में
कोयले की खदानों में
पत्थर तोड़ती क्रेशर मशीनों पर
काम करती अनपढ़ औरतें
स्नेह की परिभाषा जानती हैं
परिवार को सँवारने का
अपना शरीर होम करने का
हुनर जानती हैं

जमीन बिछौना आसमान ओढ़ना
प्रकृति के साथ तालमेल कर
खुश रहना जानती हैं
बेटा - बेटी दोनों को प्यार से सहेजकर
स्कूल पहुँचाना जानती हैं
ये अनपढ़ औरतें !

-०-
जगदीश 'गुप्त'
कटनी (मध्यप्रदेश)

-०-


***
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