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Monday, 13 January 2020

तुम्हारे मौन रहने का दर्द (कविता) - नरेन्द्र श्रीवास्तव

तुम्हारे मौन रहने का दर्द
(कविता)
जब भी
मैंने
किसी गुलाब को
छुआ है
काँटों की चुभन
जबरदस्त
मेरी उंगलियों को
चुभो गई है
और गुलाब
केवल धीरे से
यह पूछकर
चुप हो गया है
दर्द तो नहीं हुआ?

जब भी
मैंने
नदी में
किसी किश्ती से
उस पार जाने की
कोशिश की है
तूफान का एक झोंका
जबरदस्त
उस किश्ती को
डुबो गया है
और नदी
केवल धीरे से
यही पूछकर
चुप हो गया है
दर्द तो नहीं हुआ?

जब भी
मैंने
किसी वट वृक्ष की
छाया में
तनिक सुस्ताने की
कोशिश की है
कौए की बीट से
जबरदस्त
मेरी कमीज में
दाग लग गया है
और वट वृक्ष
केवल धीरे से
यही पूछकर
चुप हो गया है
दर्द तो नहीं हुआ?

जब भी
मैंने
खुली धरती में आ
दमकते सूरज को
निहारने की
कोशिश की है
आकाश का एक टुकड़ा
जबरदस्त
मेरे सिर पर आ गिरा है
और सूरज
यही पूछकर
चुप हो गया है
दर्द तो नहीं हुआ?

दर्द तो हुआ
मगर इसलिए
कि
तुम मौन देखते रहे
मुझे
मैं जबाब देता हूं,उन्हें।
-०-
संपर्क 
नरेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश)  
-०-

***
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