त्रासदी
(कविता)कांप रही है धरा,डोल उठा है गगन ।
देख तांडव मौतों का ,सिहर उठा है जीवन।
महामारियां हैं आ रही, टूटते पहाड़ हैं।
कभी बादल फट रहे, ये मौत की दहाड़ है।
ध्वस्त हुई बस्तियां,बिखर रही हैं लाशें।
मानवता रो रही, थम रही हैं सांसें।
प्रकृति क्रुद्ध हो रही,अपना धैर्य खो रही।
मानव की नादानियों का दंड प्रकृति दे रही।
अपने ही कुकर्मों का दंश,ये मानव झेल रहा।
समझ बूझ लुप्त हुई, मौत से वो खेल रहा।
काटता है बन जंगल ,पर्वतों को तोड़ रहा।
बड़े बड़े बांध बना जल धारा मोड़ रहा।
रोक रोक जलधारा, नदियों को मार रहा।
पानी बिन मर रहा,मदद को पुकार रहा।
बन जंगल कटने से बन्य जीव मर रहे।
खत्म हुई हरियाली, सपने बिखर रहे।
नित आंधियां है चल रही,बज्रपात हो रहा।
फ़ूटी सी किस्मत ले,ये मानव रो रहा।
प्रकृति और इंसान में,जंग मानों छिड़ गई।
प्रतिघात घात चल रहा, धरती अखाड़ा बन रही।
प्रकृति जन्यआपदा का जनक मानव ही बना।
मिट रहा निज कर्म से,कर्म फल है भोगना।
जी बिल्कुल सही रचना है।
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