कोसी कैसे धारे धीर ?
(कविता)
बढ़ती जाती पीड़
टूट रही हैं सांसे उसकी
दिन प्रति घटता नीर...
जिनको पाला और पिलाया
सदियों सदियों
वक्षस्थल का नीर
वही हाथ अब खींच रहे हैं
हरित वनों का चीर ...
बिछड़ गया है बसा बसाया
चिड़ियाओं का नीड़
कोसी किस को कोसे
कौन बधाये धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़...
पहले माँ का भरा हुआ था
पूरा घर- परिवार
जल जंगल संग
बाग -बगीचे
औषधियाँ भरमार
सूखा सूखा पावस बीता
रीत गया है शीत
आमद नहीं कहीं पानी की
कोसी हुई अधीर ...
कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर...?
कि ; उसकी बढ़ती जाती पीड़...
काकड़ और कुरंग अलोपित
जंगल , जंतु -विहीन
सायं होते तेंदुआ धमके
बच्चों को ले जाता छीन...
दर्द हमारा देख के होती
कोसी खुद गमगीन ...
शीतल -शीतल मंद हवाएँँ
पानी की तासीर
धीरे-धीरे होती जाती
मरू जैसी तकदीर
मरू जैसी तकदीर
कोसी किसको कोसे
कैसे धीरे धीरे ?
कि ; उसकी बढ़ती जाती पीड़
हल सुस्ताते
खेती उजड़ी
इंतजार में आँख उनींदी
उड़ती मिट्टी
जैसे उड़े अबीर...
कोसी कैसे धारे धीर...?
कि; उसकी बढ़ती जाती पीड़
कुछ वृक्षों को आओ रोपें
माँ कोसी के तीर
माँ कोसी के तीर
काम करें सुपुनीत
कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर...?
कि; उसकी बढ़ती जाती पीड़...।
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