(लघुकथा )
वह गुमसुम सी मेरे सामने खड़ी थी और उसके चेहरे से वह चमक गायब थी जिसे मैं अक्सर देखा करता था। बरहाल इस समय तो मैं उस पर नजरें गड़ाये, ये जानने की कोशिश में था कि उसने ऐसा क्यों किया?
पिछले साल भर से वह सोसाइटी के कई घरों में साफ़-सफाई का काम करती आ रही थी और आज, मेरे ख़ास दोस्त खान साहब के साहबजादे के सिर में फूलदान मारकर उसे घायल करने के बाद हुए हंगामे में वह मेरे सामने खड़ी थी और बतौर सोसाइटी सचिव के नाते मैं मामले को इसी जगह खत्म कर देना चाहता था।
"तुमने बताया नहीं कि तुमने ऐसा क्यों किया?" मैंने अपना प्रश्न दोहरा दिया।
"जो बताऊँगी तो, क्या मानेंगे आप?"
"हाँ क्यों नहीं?" मैं खुद भी नहीं जानता था कि मैं सच बोल रहा था या झूठ।
"वो... 'छोटे बाबा' मेरी बेटी के साथ बदतमीजी.....।" उसकी कांपती आवाज में निकले कुछ शब्द पूरे भी नहीं हो सके थे कि वह सिसकने लगी।
"लेकिन खान साहब का तो यही कहना है कि 'बाबा' ने तुम्हें उनके पर्स से रूपये चुराते देखा था, इसलिये तुमने उसके सिर पर फूलदान दे मारा।"
"साहब, आप तो अक्सर आते हो बंगले में, कभी लगा आपको कि हम चोर हो सकते हैं!" उसने अपनी सवालियां नजरें मुझ पर टिका दी।
"लेकिन इतने लोगों के बीच तुम ही सच बोल रही हो, ये कैसे समझें?" मेरे चेहरे पर झुंझलाहट के भाव उभर आये। "अब मेजर वर्मा का लड़का, बैरिस्टर कामत का बेटा, डॉक्टर साहब का भाई और मेरा भांजा। ये सभी झूठ बोल रहे हैं क्या?"
"अब क्या कहूँ साहब, सच तो यही है।"
"अच्छा. . . !" एकाएक मेरी आवाज तेज हो गयी। "उन बच्चों को बचपने से देखता आ रहा हूँ मैं। मेरे से ज्यादा जानती है तू उन्हें।"
"साहब! आप हमेशा उन्हें 'नाम' के अलग-अलग मुखोटों से देखते आये हैं लेकिन मैंने तो अक्सर उनके मुखोटों के पीछे छिपे एक ही चेहरे को देखा है, आदमज़ात चेहरे को!" कहते हुए उसकी आँखों की चमक एकाएक लौट आई थी और मुझे महसूस हो रहा था जैसे मेरी आँखों की चमक हल्की पड़ने लगी थी।
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