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Tuesday, 31 December 2019

सोच (कविता) - शिखा सिंह

सोच
(कविता) 
नैनों के कोरों को
वह रोज गीला करती
कभी खुशी की फुहार से
कभी गमों की हार से
चचंल बन कर चौकाती
घर के हर कोने को"
कहीं कोई रूठा तो नही
मेरी छोटी सी गलती पर
मन में झाँकती सभी के
तितली बन कर
होती छटपटाहट आवाज फूटने की
कोई कह दे कि मैं खुश हूँ
तेरे फैसले पर
जा जीत ले अपनी वो जंग
जो तेरी किस्मत को पलट कर
तेरी तरुणी इच्छाओं की
आवाज और पैर बन जायें
रच ले अपने हौसले की बुलन्दीयाँ
चमक जायें सूरज की
किरणों की भाँति
जो पिघला दे हर दिल को गर्म होकर
हर कोई कहे
तू आजाद है अपने फैसले के लिए
न बन गुलाम बुत बन कर
कि जहाँ सजाया जाये
तू सजी रहे उस कोने की शोभा में
जो बेजान है पर चलती फिरती
खेलती अवाक् बिना आवाज की छड़ी
थक सकती है वह भी
एक कोने में रह कर
जब महसूस नही करता कोई
तो बिगड़ जाती है खुशी
और फिर टूट जातीं है वह
फूलों की पंखुड़ियों की भाँति
-०-
पता 
शिखा सिंह 
फतेहगढ़- फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)

-०-

***
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