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Monday, 30 December 2019

फैमिली (लघुकथा) - राजबाला धैर्य

फैमिली
(लघुकथा)
अजीत की काॅल देखते ही आयशा चहकते हुए बोली, "हैलों!इस नाचीज को दिन में पांचवीं बार क्यों याद किया जा रहा है?"अजीत चिर परिचित अंदाज मैं हंसता हुआा बोला,"मेरा है ही कौन ? तुम्हारे सिवा इस दुनिया में।"
हां," सुनो कल एक रिश्तेदारी में फंक्शन है,इधर आॅफिस से मैं पहुंचुंगा उधर से फैमिली पहुंच जायेगी।सोच रहा था रास्तें में तुम से भी मुलाकात करलूं।पार्टी तो वैसे भी रात में है,फैमिली भी रात तक ही पहुंचेगी।क्या मिलोगी
?.....बहुत याद आ रही है अपनी इस प्यारी फैमिली की?आयशा फोन पकड़े पकड़े जाने कब यादों में चली गयी?घर था,रिश्ते थे,खुशियां थीं ...।कुछ उनकी कमी थी,कुछ मेरी,वो रूंठे,मैं रूंठी,वो टूटे,मैं टूटी,न उन्होने मनाया न मैंने।सब बिखर गया..अकेलेपन ने मुझे अजीत से मिला दिया .. .. .गुमनाम मोबाइल फैमिली---.।यादों का तूफान आयशा को फैमिली से मिला लाया।नार्मल होते ही आयशा ने अजीत को मैसेज टाइप किया,कुछ जरूरी काम है नहीं मिल पाऊंगी और गीली आंखों से फोटो एल्बम के पन्ने पलटने लगी।
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पता:
राजबाला धैर्य
बरेली (उत्तरप्रदेश)


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