एक श्मशान की मौत!
(लघुकथा)
(लघुकथा)
शहर बस रहा था। बंजर जमीन पर पेड़ कहां होते हैं! झाड़ियां थी। उन्हें काटा जा रहा था। सांप बिच्छू बहुत थे। उन्हें मारकर लाने पर रुपैया- अठन्नी मिलती थी। मकान बन रहे थे। विस्थापित बस रहे थे। समुद्र के पास का क्षेत्र होने और बंदरगाह की संभावनाएं देख, देश के और हिस्सों से भी आकर लोग बसने लगे थे। विकास हो रहा था। विकास की और भी सम्भावनाए थी।
तभी मेरी जरूरत पड़ी। शहर से दूर, शहर में जहां प्रवेश होता है उसी रास्ते के पास मुझे बनाया गया। पास में हनुमान मंदिर भी बना। मेरी जरूरत शाश्वत थी। जो जन्मा है, वह मरेगा भी। धीरे धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी। शहर मेरे समीप आने लगा। मेरी जरूरत ज्यादा होने लगी । तो विकास भी करना पड़ा। खुले आसमान में छपरा बना। छपरे से छत बनी। बैठने के लिए कुर्सियों की व्यवस्था, पानी की व्यवस्था, दार्शनिक उक्तियां, सुंदरता के प्रयास होने लगे। दान धर्म का पैसा आराम से मिलता। हर वर्ष मेरे ऊपर खर्चा बढता गया।
फैलाव और बढा। रास्ते के बीच से रेलवे लाइन गुजरने लगी।मुझ तक पहुंचने में फाटक समस्या पैदा करने लगा।मेरे प्रति लगाव में कमी आने लगी। सड़क एक से दो, दो से चार, चार से छह लेन की होती गई। उसने हनुमान मंदिर को लील लिया।मुझ तक पहुंचने में परेशानी होने लगी। लोगों ने पास के शहर में दूसरा स्थान विकसित किया। कुछ वहां जाने लगे। वाहनों की संख्या बढ़ी, फाटक की तो समस्या थी ही।अब मेरे पास से फ्लाईओवर भी गुजरने लगा। मैं दब गया।मुझ तक पहुंचने में परेशानी और ज्यादा बढ़ गई।
लोगों ने दूसरा स्थान चुन लिया। जहां दिन भर भीड़ रहती थी, अब भूले भटके महीने दो महीने में एकाध बार मेरा उपयोग होता। देखभाल के अभाव में दिवाले गिरने लगी। झाड़-झंखाड़ उग आए। गंदगी हो गई। छत दीवारें टूट गई।
मैं समाप्त होने लगा।
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पता:
तभी मेरी जरूरत पड़ी। शहर से दूर, शहर में जहां प्रवेश होता है उसी रास्ते के पास मुझे बनाया गया। पास में हनुमान मंदिर भी बना। मेरी जरूरत शाश्वत थी। जो जन्मा है, वह मरेगा भी। धीरे धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी। शहर मेरे समीप आने लगा। मेरी जरूरत ज्यादा होने लगी । तो विकास भी करना पड़ा। खुले आसमान में छपरा बना। छपरे से छत बनी। बैठने के लिए कुर्सियों की व्यवस्था, पानी की व्यवस्था, दार्शनिक उक्तियां, सुंदरता के प्रयास होने लगे। दान धर्म का पैसा आराम से मिलता। हर वर्ष मेरे ऊपर खर्चा बढता गया।
फैलाव और बढा। रास्ते के बीच से रेलवे लाइन गुजरने लगी।मुझ तक पहुंचने में फाटक समस्या पैदा करने लगा।मेरे प्रति लगाव में कमी आने लगी। सड़क एक से दो, दो से चार, चार से छह लेन की होती गई। उसने हनुमान मंदिर को लील लिया।मुझ तक पहुंचने में परेशानी होने लगी। लोगों ने पास के शहर में दूसरा स्थान विकसित किया। कुछ वहां जाने लगे। वाहनों की संख्या बढ़ी, फाटक की तो समस्या थी ही।अब मेरे पास से फ्लाईओवर भी गुजरने लगा। मैं दब गया।मुझ तक पहुंचने में परेशानी और ज्यादा बढ़ गई।
लोगों ने दूसरा स्थान चुन लिया। जहां दिन भर भीड़ रहती थी, अब भूले भटके महीने दो महीने में एकाध बार मेरा उपयोग होता। देखभाल के अभाव में दिवाले गिरने लगी। झाड़-झंखाड़ उग आए। गंदगी हो गई। छत दीवारें टूट गई।
मैं समाप्त होने लगा।
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पता:
विवेक मेहता
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