टूटा हुआ दीया
(कविता)
आ जाए लाख आँधियां भी,मैं बाती न बुझनें दूगाँ।
मुझकों न जरूरत महलों की, वहाँ बड़ी बड़ी मशालें है।
मत मुझें जलाना मंदिर में,वहाँ मणि माणिक के उजालें है।
मुझें जला छोड़ना छप्पर में,मैं अँधियारा न रूकने दूगाँ।
आ जाए लाख आँधियां भी,मैं बाती न बुझनें दूगाँ।
सोने चाँदी से गढ़कर के,मत मढ़ना रूप सुहाना तुम।
न रंगों से रंगना मुझकों,न सौरभ से महकाना तुम।
कोरी माटी ले, रूप ढाल, मैं मोल नहीं घटने दूगाँ।
आ जाए लाख आँधियां भी,मैं बाती न बुझनें दूगाँ।
मैं दीन -हीन हूँ माना कि,तुम थोड़ा सा संबल दे दो।
मेरी अधजली वर्तिका को ,सूरज की एक किरण दे दो।
फिर आन खड़े हो झंझावत,निज कदम नहीं हटने दूगाँ।
आ जाए लाख आँधियां भी, मैं बाती न बुझनें दूगाँ।
मुझकों गरीब की खोली की, चिन्ता हरदम सताती है।
महलों की फिक्र नहीं मुझकों,वहाँ चाँद सजी जगराती है।
रख आस जलाना खोली में,मुस्कान नही मिटनें दूगाँ।
आ जाए लाख आँधियां भी, मैं बाती न बुझनें दूगाँ।-०-
पता:
सुन्दर रचना के लिये बहुत बहुत बधाई है आदरणीय ।
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