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Wednesday, 22 January 2020

संग तराश (कविता) - अब्दुल समद राही

संग तराश
(मुक्तक रचना)
मैं हूं
संग तराश
एक
बेडोल-बेढंग-बेसूरत
पत्थर को
तराशते आये है
मेरे पूर्वज
उनकी
शिल्पी दृष्टि में
निखरे है
ताजमहल-लालकिला
कुतबमीनार
कई मठ
झरोखे वाली
हवेलियां
मंदिर-मस्जिद
चर्च-गुरूद्वारे
दरगाह-आश्रम
और
उसमें विराजमान
देवी-देवता
हमारे भगवान
हमारी
शिल्पकारी ने
सजाई-संवारी है
यह दुनिया
प्रेमभाव, शिष्टाचार
और
आदर का भाव
दिया है
जमाने को

मगर
आज मैं
बेढंग, बेतरतीब
बदसूरत
जिन्दगी जी रहा हूं
क्योकि
लोग
मेरी नही
मेरी शिल्पकारी की
वाहवाही में
मशगुल है

ठेकेदारों ने दिये है
चंद सिक्के
मजदूरी के रूप में
सिर्फ
पेट भरने के लिए
और वो
दोनों हाथों से
दुनिया लूट रहे हैं।***
पता:
अब्दुल समद राही 
सोजत (राजस्थान) 
-०-

***
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