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Wednesday, 30 October 2019

रोशनी (लघुकथा) - सीमा जैन ‘भारत’

रोशनी
(लघुकथा)
दिये और तेल खरीद कर घर जा रही हूँ। धनतेरस का दिन है। जाकर पहले खाना बनाना है, फिर दिये जला लूँगी। बेटे को बुखार है। माँ इतनी कमज़ोर है कि उससे कुछ काम नहीं हो पाता।
घर पहुँची तो पड़ोसन रज़िया मुन्नी को गोद में लिए बैठी थी। मुझे देखकर बोली, “आज भी देर कर दी, तेरी मालकिन को दया नहीं आती क्या तुझ पर?”
थकी आवाज़ में मैंने कहा, “त्यौहार के दिन काम ज़्यादा रहता ही है। फिर मेहनताना भी ठीक-ठाक मिल जाता है, वह भी समय पर। ये भी क्या कम है, आज के ज़माने में!”
“अच्‍छा ठीक है। मैंने आटा लगा दिया है और भाजी काट दी है। ला, दिये मैं पानी में डाल देती हूँ। तू इस मुन्‍नी को संभाल, कब से रो-रोकर हलकान हुए जा रही है।”
रज़िया बोली।, "मैं सोच रही थी, रज़िया नहीं होती तो मैं कैसे काम पर जा पाती? इसके भरोसे ही तो छोड़ जाती हूँ, बेटे, मुन्‍नी और माँ को। रज़िया दीये पानी में डालकर बोली, “अब मैं जा रही हूँ, मुझे भी रोटी बनानी है।”
“रज़िया, देख न बाहर कितनी रोशनी है।” “हाँ, तू भी कर लियो अपने दरवज्‍जे रोशनी, दिये भीग रहे हैं अभी।”
पर मेरे मन में तो कुछ और ही चल रहा था। मैंने जल्दी से डिब्बे में से गुड़ का टुकड़ा निकाला और बोली, “रज़िया जरा रुक!”
अब क्‍या हुआ?” रज़िया जाते-जाते ठिठक गई। जवाब में मैंने रजिया के मुँह में गुड़ का टुकड़ा डाल दिया और बाँहें फैलाकर बोली, “दरवज्‍जे पर रोशनी तो वे चार दिये करेंगे ही, पर असली रोशनी तो तेरे दिल में है!”
-०-
सीमा जैन ‘भारत’
ग्वालियर
-०-
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