ओ प्रिये
मैं तुम्हारी आँखों में बसे
दूर कहीं के गुमसुम-खोएपन से
प्यार करता हूँ
मैं घाव पर पड़ी पपड़ी जैसी
तुम्हारी उदास मुस्कान से
प्यार करता हूँ
मैं उन अनसिलवटी पलों
से भी प्यार करता हूँ
जब हम दोनों इकट्ठे-अकेले
मेरे कमरे की खुली खिड़की से
अपने हिस्से का आकाश
नापते रहते हैं
मैं परिचय के उस वार
से भी प्यार करता हूँ
जो तुम मुझे देती हो
जब चाशनी-सी रातों में
तुम मुझे तबाह कर रही होती हो
हाँ, प्रिये
मैं उन पलों से भी
प्यार करता हूँ
जब ख़ालीपन से त्रस्त मैं
अपना चेहरा तुम्हारे
उरोजों में छिपा लेता हूँ
और खुद को
किसी खो गई प्राचीन लिपि
के टूटते अक्षर-सा चिटकता
महसूस करता हूँ
जबकि तुम
नहींपन के किनारों में उलझी हुई
यहीं कहीं की होते हुए भी
कहीं नहीं की लगती हो
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हार्दिक बधाई है आदरणीय सुन्दर रचना के लिये।
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