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Friday, 27 March 2020

जीने के कुछ ढंग (ग़ज़ल) -डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'


जीने के कुछ ढंग
(ग़ज़ल)
सही तरह से जीने के कुछ ढंग सिखाती है
कुदरत भी ना जाने क्या क्या रंग दिखाती है

बाल हुए सफ़ेद आँखों से धुँद्ला दिखता है
दाँत लगे गिरने चलने में जिस्म भी हिलता है
समझो ईश्वर की तुमको ये पहली पाती है

मात पिता का आदर करना बच्चो से स्नेह
जब जब गले मिले हम उनसे नेनन बरसे मेह
ये ही जीवन दर्शन ही तो अपनी थाती है

क्या पाया क्या खोया हमने सोच के देखो तुम
कहाँ पे क्या क्या छूट गया है लौट के देखो तुम
ऐसी ही कुछ भूली यादें हमको याद दिलाती है
कुदरत भी ना जाने क्या क्या रंग दिखाती है
-०-
पता:
डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
-०-



***
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