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Monday, 28 October 2019

वसुधैवकुटुम्भकम (ललित निबंध) - सुशीला जोशी


वसुधैवकुटुम्भकम
(ललित निबंध)
जी हाँ, वसुधैबकुटुम्भकम अर्थात पूरी वसुधा को अपना एक कुटुम्भ की भवना रखना जो हमारी संस्कृति की आत्मा है, कार्यक्षेत्र है ,एक मानवीय अहसास है । विभिन्न शारीरो में एक ही प्राण तत्व की प्रतिष्ठा की अनुभूति है अर्थात प्राणी मात्र की रक्षा व सहयोग का संकल्प किन्तु हर मानव,हर देश , हर समाज ,हर वर्ग का अपना अपना पृथक अस्तित्व की चमक ,मान , अभिमान और सम्मान देने की एक शपथ भी ।
अपने परिवार की तरह ,हर परिवार को अपना मान दूसरे की कन्या को अपने घर की स्वामिनी बनाने की एक रीत ,एक परम्परा ।उसकी सन्तान को आनेवाली पीढ़ी की इकाई का अधिकार देने का एक वादा । सम्पूर्ण धरा पर रहनेवाले किसी भी नर नारी को मन पसन्द जोड़ा बनाने के अधिकार की एक भावना । यही तो है वसुधैबकुटुम्भकम की विशद दृष्टिकोण रखने वाली भारतीय संस्कृति ।
इस सोच को विशुध्द रखने का एक प्रयास भी । वर्णसंकर नस्ल तो जनवरों में भी स्वीकार नही इसीलिए अपनी जाति, रीति रिवाज और संस्कारों को बचाने की एक भावना का भी समावेश है ।कुटुम्भ जाति ,प्रजाति के भरण पोषण एक संकल्प जिसमें चीटीं से ले कर बड़े से बड़े जानवर को भी अपने परिवार का सदस्य मान लेने की अनुभूति है । उनसे आधिदैविक या अधिभौतिक लाभ कमाने की एक ललक भी । उदार चित्त और परोपकार की पराकाष्ठा भी । विधाता की श्रेणी में मानव को ला कर बैठाने एक मार्ग भी । अंततः पृथ्वी पर निवासित हर प्राणी कुटुंब का ही तो सदस्य है । वही परिवार वही कुटुम्भ जिसमें कभी हिंसा का तांडव होता है तो कभी प्रेम की गंगा बहती है । कभी लेंन देन का व्यापार होता है तो कभी दयाभाव की लहर में सम्पूर्ण समर्पण भी , दान महादान भी और त्याग की साधना भी । सिद्धार्थ सबकुछ त्याग कर बुद्ध हो गए ,वर्धमान राज वैभव को त्याग कर महावीर बन गए और गजराज ने शीश दान में दे कर गणेश की उपाधि पा ली । जब जब त्याग ने कुटुंब में स्थान बनाया त्यागी परमानन्दी हो कर देव श्रेणी में आ खड़े हुए ।यही तो है कुटुंब को बनाये रखने का उद्देश्य जो जगत कल्याण के साथ आत्मकल्याण की राह दिखता है ,एकरूपता के विस्तार के लिए विवधता के दमन का प्रयास नही करता ,तेरे मेरे अधिपत्य को स्वीकार नही करता ,भेदभाव को बढ़ावा नही देता ,अपने पराये के अंतर पर दृष्टि नही गड़ाए रहता ,छोटे बड़े ,ऊँच नीच , जाति धर्म की खाई में नही झाँकता । यही तो है भारतीय संस्कृति की धुरी ,बुद्ध की ज्ञान दृष्टि , और महावीर की सम्वेदना । जो कुछ भी इस धरती पर है उस पर सबका समान अधिकार है इसिलए संचय की आवश्यकता कहाँ ? स्थिति विपरीत हो या पक्ष में वसुधा जीवन दान के के सदैव कटिबद्ध है । पेड़ फल स्वयं झाड़ देते हैं ,सरिता जल बेमोल मिलता है , प्राण वायु सृष्टि बाँटती नही वरन सबके लिए खुला छोड़ देती है ।ईंधन के लिए लकड़ियाँ स्वयं सूख कर झड़ जाती हैं ।स्रष्टा के इस विधान में भला स्वार्थ किस द्वार से प्रवेश करेगा ? उसके इस विधान में केवल ढाई अक्षर का वास है ।यही तो प्रेम है जो आकाश की तरह विशद है विराट ,अद्भुत है ,ललित है और संवेदनशील, ज्ञान और ध्यान है । जहाँ प्रेम नही वहाँ ज्ञान कहाँ और जहाँ ज्ञान नही वहाँ ध्यान कैसा? प्रेम के सरोवर में डूब कर ही तो पूरी वसुधा कुटुंब बनती है । संस्कृति की इस धुरी में परमहंस का मार्ग निहित है जिसके नियम बड़े कड़े हैं जिसका आदेश पत्थर की लकीर है ,जिसमें वृत्ति कुवृत्ति में कोई संयोग नही । जिसका अपना एक जुनून है ,एक धुन है , एक हठ है , एक निश्चितता है ,दृढता है और अपने अपने फैसले लेने की एक क्षमता है जो विश्व के जनकल्याण की भावना सहनौभुनक्तु, सहवीर्यंकरवावहे से सराबोर है ,जो जड़ जंगम जगत में समदृष्टि आत्मवतसर्वभूतेषु का चश्मा पहने है । यही तो बीजमन्त्र है वसुधैबकुटुम्भकम का ।
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सुशीला जोशी
मुजफ्फरनगर
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