(ग़ज़ल)
जब संवेदना ही जी-हजूरी बन जाये
हृदय के भाव भी मजबूरी बन जायेक्या फर्क है - मरकर जीयें या जी मरें
जब खुद से ही खुद की दूरी बन जाये
घात पर घात मिले अपने ही लोगों से
इंतहाँ में जख्म और अंगूरी बन जाये
एक हों ख्वाब और बिछड़ना नसीब हो
चलते-चलते रास्ते अधूरी बन जाये
बेमक़सद हो जिंदगी और जीना पड़े
ऐसे में एक कहानी जरूरी बन जाये
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पता:
प्रशान्त 'प्रभंजन'
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