"जीवित हैं संस्कार अभी "
(लघुकथा )
“चलो कुछ खा पी लें”
पापा से बिट्टू बोले।
बिट्टू माँ-पापा के साथ रेस्टोरेंट में बैठा था।
मैन्यू कार्ड बिट्टू के हाथ में था।
उसने मसाला डोसा या पनीर डोसा और पाव भाजी आर्डर करनी चाही।
वेटर को बुला कर आर्डर किया तो वह सकुचा कर बोला – “साॅरी सर पाव भाजी अवेलेबल नहीं हो पाएगी। प्लीज़ कुछ और आर्डर कर दें।”
पापा कुछ नाराज़ हो कर-“अरे यार"
बिट्टू की ओर देखा।
वह बोला – “कोई बात नहीं। डोसा आर्डर कर देते हैं। ऐसा करो दो पनीर डोसा ले आओ।”
वेटर सहमति कर बोला – “सर। मसाला डोसा ही मिल पाएगा।”
पापा का पारा हाई हो चला-
” क्या तमाशा है। जो चीज़ आर्डर करते हैं वह उपलब्ध नहीं। यह लिस्ट यहाँ क्या मज़ाक के लिए लगाई है या कस्टमर को तंग करने के लिए।”
बेचारे वेटर का हाल खराब। उसे डर कि कहीं कस्टमर की आवाज़ मैनेजर के काउन्टर तक पहुंच गई तो नौकरी की छुट्टी।
माँ जब तक पापा को शांत करतीं तब तक बिट्टू धीरे से माँ से बोला – “माँ इसमें इनका क्या दोष। इन छोटे कर्मचारियों से पापा इतनी ज़ोर से न बोलें, प्लीज़ उन्हें मना कीजिए।”
” माँ ये वैसे ही दुखी होते हैं और इस व्यवहार से तो वे अपने आप को बिल्कुल डाउन फील करते हैं।”
“माँ इन लोगों से कोई दुर्व्यवहार करता है तो मैं इनकी जगह खुद अपने आपको खड़ा हुआ पाता हूँ। मानों यह सब मेरे साथ ही घटित हो रहा है।”
आज की जेनरेशन में पले-बढ़े बेटे के मुख से मानवता की भावना दर्शाती बड़ी बात सुनकर माँ हैरान भी थी और गर्वित भी। आज भी हमारे संस्कार जीवित हैं।
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