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Sunday, 17 January 2021

*क्या कमाया...?* (कविता) - दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र'

 

  *क्या कमाया...?*
(कविता)
संसार-सागर
सिर्फ समय-सराय , 
परमात्मा से बिछड़,
आत्मा यहां आय।

पार्थिव तत्वों को 
उसने ही गूँथकर,
घररूपी नश्वर 
शरीर बनाया ।
हाथ खुले 
रखकर है जाना ,
फिर क्यों सोचे..?
कि क्या 
तूने कमाया ..?

पाने से ज्यादा तू
खोकर है जाता ।
मोहमाया के जाल में
उलझ-उलझ रह जाता ।

यहीं पे पाता ,
यहीं पे खोता ।
बस मूर्ख बन ,
जाने क्यों रोता ।

आमदनी तेरी बस
' समय फेर का '।
और कमाई 
' हृदय भरा प्रेम का ' ।

जितना समय-चक्र 
तेरा धरती पर ।
केवल यहाँ बस
' प्रेम-कमाई ' तू कर ।

यही प्रेम 
तेरे साथ है जाना ।
नहीं तो दुनियां ,
जाने भुलाना ।

बंद मुट्टी तू 
लेकर है आया ,
मुट्टी बन्द ,
न जा पाएगा ।
मोह के फेर में 
पड़कर तू बस, 
अंत समय 
पछताएगा ।

प्रेम कमाई से 
गठरी खाली गर ,
मुँह क्या तू ,
उसको दिखाएगा ।
समय फेर के 
चक्कर में बस ,
खाली हाथ आया ,
खाली ही जाएगा ।
-०-
पता:
दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र' 
बूंदी (राजस्थान)

-०-

***
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