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Wednesday, 7 October 2020

जा रहे घर हम (कविता) - शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

जा रहे घर हम
(कविता)
घुट रहा है इस शहर में,
दैहिकी का दम,
जा रहे घर हम |

जेलचुंगी पर खड़ा है,
ले दरोगा डंड,
निर्दयी है और देता,
बिना लांछन दंड,
हाथ खाली, पेट भूखा,
और फिर कितने गिनाऊँ,
ये लगे क्या कम ?

गाँव में है एक छोटी
छान, छोटा घेर,
काट लेते दिन पिताजी,
रोज गन्ना पेर,
साथ सोते पेड़-पौधों
के सघन हँसमुख बगीचे,
और ऋतु है नम |

खेत हरियल, है नयापन,
है टहलती वायु,
लोग कहते, रह यहाँ, है
गगन चढ़ती आयु,
सड़क पर कारें अबाधित,
तेज गति से दौड़ती हैं,
साथ चलता यम |

जल रहे पगडण्डियों पर,
दीपलट्टू आज,
निडर होकर चल रही है,
रात में भी लाज,
चोरबत्ती के बिना है,
साँझ का सावन अकेला,
दुम-कटा है तम |
-०-
पता: 
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
-०-


***
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