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Friday, 24 January 2020

जाड़े की धूप (कविता) - गीतांजली वार्ष्णेय

जाड़े की धूप
(कविता)
कितनी प्यारी लगती है जाड़े की ये धूप"
थर थर काँपें,सूरज दादा जब जाते छुप।
सुबह कुहराआया था,घुप अंधेरा छाया था,
बहुत दिनों में आज खिला है,अम्बर का ये रूप।।
कितनी प्यारी लगती है,जाड़े की ये धूप।

लुका छिपी खेल रहे,बादलों बीच डोल रहे,
सूरज दादा फैला रहे,जग में गुनगुनी ये धूप।
जीवन का अंग जैसे बुढ़ापे में
आ जाये जवानी का वो रूप।।
कितनी प्यारी लगती है,जाड़े की ये धूप

जाड़ा प्रतीक संघर्षों का,
दुख के साथ सुख का प्रतीक
बन जाती ये धूप ।।
कितनी प्यारी लगती है जाड़े की ये धूप।।
-०-
पता:
गीतांजली वार्ष्णेय
बरेली (उत्तर प्रदेश)
-०-
***
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