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Friday, 24 January 2020

माँ (कविता) - डा. वसुधा पु. कामत (गिंडे)

माँ
(कविता)
माँ मैं हूँ गुडियाँ
सुन रही हो मेरी आवाज़
मैं तुम्ही से बोल रही हूँ
सुन रही हो मेरी आवाज़
माँ बताना इतनी
सहमी सहमी तुम क्यूँ हो
क्यूँ डरी डरी सी हो माँ
मै आनेवाली हूँ दुनिया में
इसका डर है तुझे
क्या हो रहा है दुनिया में
जिसका तुझे डर है माँ ।

माँ
बेटी मुझे तेरे आने से डर नही
डर तो उन दरिंदों का है
जो तुम्हें नोचने बैठे है
डर तो तेरे यौवन का मुझे
जो तेरे यौवन पर
काकभुशुण्डि आँख लगाकर बैठे है
मैं जितना भी तुम्हे छुपा लूँ
पर वो रक्कस तुमपर हावो हो जायेंगे
नौ महीनों की कोख मेरी
नन्ही सी , नाजूक वो परी
बिना मतलब के
उन रक्कस की
बली चढ़ जायेगी
तेरी माँ रोने के अलवा
कुछ भी नही कर पायेगी
खुदको कोसती रहूँगी
तो कभी ऊपरवाले को
मै कोसती रहूँगी ।।

बेटी
माँ सुन ना
मै रोज रोज
पापा को सुनती हूँ
कहते है ना वो,
मेरी बिटियाँ रानी
बनेगी नये भारत की
नयी नारी
फौलाद सी होगी वो
निडर बनके जियेगी
हमारे देश के लिए
मिसाल बनेगी
बनकर रानी लक्ष्मीबाई
करेगी खात्मा उन
काकभुशुण्डियों की
जो कु - नजर रखेंगे
उनकी आँखें नोच लेगी
बनेगी भारत माता की
एक शूर वीर पुत्री
करगी रोशन अपने
पिता का नाम
ऐसी होगी मेरी बेटी
देख माँ तू अब ड़रना छोड़ दें
एक वीर माँ की तरह
वीर बेटी को जनम दें ।।-०-
पता :
डा. वसुधा पु. कामत (गिंडे)
बेलगाव (कर्नाटक)  


-०-

***
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