जैसा अन्न... वैसा मन
(लघुकथा)
एक दिन शर्मा जी के एक मित्र उनसे कहने लगे, 'कोई ईमानदार लड़का हो तो बताओ, हमारे साहब को उनके घर में काम करने के लिए चाहिए।
उन्होंने दीनू के बारे में बतलाया और उनके यहां काम करने भेज दिया।
एक दिन दीनू , शर्माजी के पास आया तो उसने बतलाया, साहब अकेले रहते हैं। मैं ही उनके घर का पूरा काम करता हूं। खाना बनाता हूं, झाड़ू-पोंछा, बरतन धो-मांजना, बाजार से सामान लाना ऐसे सभी काम करता हूं। वहीं रहता हूं। वहीं खाना खाता हूं।उनकी मेम साहब दूसरे शहर में नौकरी करती हैं।
फिर एक दिन जब दीनू आया तो उसने बतलाया - 'साहब की ऊपरी कमायी बहुत है। घर पर बहुत लोग आते हैं और रुपए दे जाते हैं।' शर्मा जी ने उसे गौर से देखा। उसके नये कपड़े, नये जूते देखकर पूछा- ' ये साहब ने ही... '
' हाँ, उन्होंने ही दिलाए हैं' शर्मा जी की बात पूरी होने के पहले ही वह बोला।
शर्मा जी, उसे दो सौ रुपए देते हुए बोले, 'बाइक में पेट्रोल डलवा लाओ। ' वह बाइक लेकर गया तो बहुत देर बाद लौटा। आते ही कहने लगा- ' घर चला गया था। बहुत दिनों से नहीं गया था।'
एक दिन जब वह आया तो शर्मा जी ने उसे बिजली का बिल जमा करने भेजा। वापिस आया तो उन्हें आश्चर्य हुआ, उसने बाकी के रुपए नहीं लौटाए। उससे बाकी के रुपए मांगे तो वह बोला- ' मेरे दोस्त मिल गए थे, उन्हें चाय पिलाने में खर्च हो गए।'
शर्मा जी ने महसूस किया। वह बदलने लगा है और उसकी ईमानदारी कहीं खोती जा रही है।
एक दिन उनका वही मित्र घबराते हुए आया और पूछा - ' दीनू ! यहां आपके पास आया था क्या? मेरे साहब ढूँढ़ रहे हैं। दो दिन से वह उनके यहां नहीं जा रहा है।उन्होंने, उसे बैंक में रुपए जमा करने दिए थे वे भी उसने जमा नहीं किए। मैंने आपको ईमानदार लड़के का बोला था। वह तो बेईमान निकला।
शर्मा जी स्तब्ध रह गए।
'जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन'... उन्हें बचपन में पढ़ी एक कहानी की सीख याद आ गई।
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