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Thursday, 29 October 2020

"मन का दीया" (कविता) - मधुकर वनमाली


"मन का दीया"
(कविता)
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।

तेरे उर में तिमिर बसे जो
खाली मन का शिविर लगे जो
कांच के टुकड़ों सा बिखरा मन
पथ में तेरे जाके बिछे जो
नही जरा तुम राह को रोना
बस मेरी लौ तक आ जाना
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।

जीवन में कैसी तृष्णा है
प्यास बढ़े पीने से देखो
हो न कभी जो पग ये डगमग
मजा नहीं जीने में देखो
स्वाति बूंद सा नीर नयन का
मैंने वह मोती पहचाना
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।

मिलन की बेला में अलसाई
सोयी है या जाग रही तू
सुंदर वह सपनों की वीणा
मालकोश के राग चढ़ी तू
आज नया सा गीत तुम्हें दूं
सुन कर हौले से मुस्काना
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।
-०-
पता:
मधुकर वनमाली
मुजफ्फरपुर (बिहार)

-०-
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