(लघुकथा)
मुंबई की धुआंधार बारिश की चपेट में था महानगर ।निचले भागों में तो घुटने घुटने पानी भर चुका था। विवेकी बाबू का चार मंजिल की बिल्डिंग में पहली मंजिल पर टेरेस फ्लेट था। टेरेस से पानी सीधा कमरों में घुसने लगा ।थोड़ी ही देर में हल्का फुल्का सामान कमरों में भरे पानी में तैरने लगा। घर के सभी प्राणी पानी उलीचने में लग गए। पर वे जितना उलीचते पानी लौट लौट कर उतना ही भरता जाता।
" अरे, फोन करो घसीटाराम को। समझ में नहीं आ रहा पानी लौट लौट कर क्यों आ रहा है।"
आवाज मोहिनी की थी ।जो घसीटाराम मेहतर को घर की दहलीज तक पर खड़े नहीं होने देती थीं। वह दरवाजे पर आ भी जाता तो बाल्टी भर पानी डाल जगह पवित्र करती थीं। कभी कंपाउंड की सफाई कर उनके दरवाजे पीने को पानी या चाय मांगता तो पैसे टिका देतीं।
" जा होटल में पी ले जाकर ।"
उसके जाते ही दरवाजे पर अगरबत्ती लगा देतीं। कमरों में अगरबत्ती की खुशबू भरने लगती।
"मुआ ,नालियां साफ कर खुद भी नाली जैसी बदबू छोड़ता है। गांधी जी ने वैष्णव जन कहकर इन्हें सर चढ़ा लिया। वरना क्या मजाल कि ये ड्योढ़ी चढ़ें। "
मगर आज ........
विवेकी बाबू ने फोन लगाकर उसे बुलाया ।इतनी भारी बारिश में भी वह दौड़ता हुआ आया। घुटनों तक पैंट चढ़ाए, तवे जैसा काला, पीली आँखों वाला घसीटाराम दरवाजे से कमरों में भरे पानी में पैर डुबोता रसोई घर से होता हुआ टेरेस तक गया। घुटने के बल बैठ कमीज की बाँहे चढ़ाईं और नाली में हाथ डालकर ढेर सारा कचरा निकाला । नाली खुलते ही पानी तेजी से बह चला। कमरों में रह गई कीचड़ जिसे साफ कर पूरे घर को कपड़े से पोछ कर सुखा डाला । घर चमक उठा। घसीटाराम विवेकी बाबू के दिए हुए मेहनताने के रूपए गिन ही रहा था कि मोहनी की रसोई घर से आवाज आई
"सुनते हो ,चाय बिस्किट दे दो उसे। बेचारा इतनी बारिश में आया। नहीं आता तो हमें तो पानी बर्बाद ही कर डालता।"
अब घर सुरक्षित था।पानी उतर गया था।
-०-
संपर्क
No comments:
Post a Comment