घर की रोशनी
(लघुकथा)
"ए ,जी! राखी के ससुराल जाने पर घर सूना-सूना सा लगता है। काटने को दौड़ता है ,मेरा तो मन बिल्कुल भी नहीं लगता।" "क्यों, मैं भी तो घर में ही रहता हूँ, तुम्हारा कितना ख्याल रखता हूँ, पर तुम्हारी दृष्टि में तो मेरी कोई कीमत ही नहीं है। "
परेश बाबू ने पत्नी को तनिक छेड़ते हुए कहा।
"नहीं जी , ऐसी कोई बात नहीं है , आप अपनी जगह पर हैं, राखी का स्थान तो आप नहीं ले सकते। उससे पूरा घर रोशन रहता था। उसकी प्यारी- प्यारी बातें मेरे कानों में रस घोलती थी।"
"सो तो ठीक है, पर लड़कियों के हाथ तो एक दिन पीले करने पड़ते हैं। तुम भी तो एक दिन अपने माता-पिता का घर सूना करके मेरा घरआबाद करने चली आई थी । तुम्हारे आने से मेरा जीवन कितना रसमय, आनंदमय हो गया था । यह तो संसार की परंपरा है ,लड़कियों को दो घर आबाद करने होते सम्पपादक।"
"जी आपकी बात तो बिल्कुल ठीक है , मैं इससे पूर्णतया सहमत हूँ , पर मेरे मन में एक बात आई है, क्यों न हम
देवर जी की दो परियों जैसी प्यारी-प्यारी बेटियों में से एक
छोटी वाली बेटी को अपने घर की रोशनी बना लेते हैं ?"
"नेकी और पूछ-पूछ । आपका प्रस्ताव बहुत ही सुंदर है , पर क्या वे इससे सहमत हो जाएंगे ।"
" वह सब मुझ पर छोड़ दीजिए । "
छोटी परी अपने घर की रौनक बनेगी, उसकी उछल-कूद और किलकारियों से सूना घर पुनः गूँजने लगेगा ,इसकी कल्पना मात्र से ही पति पत्नी का मानसिक अवसाद दूर हो गया।
उनके मन के सूने कोने में संगीत की स्वर लहरियाँ बजने लगीं।
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