आओ गणतंत्र दिवस मनाये हम
(कविता)
पतझड़ का एक ठूंठ हू मैं ।
दहलीज की लाज रखना ,
प्रकृति ने कर दिया मेरे वश मे ।
बसंत का मौसम आए ,
पतझड़ का भी मौसम आए,
पत्ते लगे और फिर टूट जाए।
परन्तु ?
मेरा स्थान जो है वही रहे ।
क्योंकि ,
पतझड़ का एक ठूंठ हू मै ।
चाहे बसंत हो !
या पतझड़ का मौसम ,
मेरे लिए तो दोनो समान है ।
क्योंकि,
हरियाली से मेरा कोई वास्ता नही ।
पतझड़ के पत्ते मुझमे लगते नही ।
तबतक दहलीज की लाज रखूंगा मै,
जबतक मेरा जीवन जुड़ा है धरती से ।
क्योंकि,
पतझड़ का एक ठूंठ हूँ मै ।
चाहे हो बसंत की रौनकता ,
या हो,
पतझड़ की नीरसता ।
अपने सीमित दायरे मे रहना !
प्रकृति ने कर दिया मेरे वश मे ।
कही आना-जाना नही मेरे जीवन मे ।
क्योंकि,
पतझड़ का एक ठूंठ हूँ मै ।
सुरेश शर्मा
-०-
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