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Sunday, 27 October 2019

दीपावली ऐसे ही नहीं आती... (लघुकथा) - गोविन्द सिंह चौहान

दीपावली ऐसे ही नहीं आती...
(लघुकथा)
"बेटा! गाँव से आई नई कामवाली "बाई" जब से अपने यहाँ काम पर आने लगी तब से तुम्हारी मम्मी का व्यवहार बदला-बदला लग रहा है। घर में पूरी कॉलोनी की बातें होती हैं आजकल। गाँव की खेतीबाड़ी, जमीन-जायदाद की बातें पूछने लगी है तुम्हारी मम्मी।" शर्मा जी ने अपने बेटे सुबोध से कहा तो सुबोध बोला, "हाँ पापा, बुआजी व चाची भी बहुत नाराज हैं। गाँव से फोन आया था, कह रही थी कि 'तुम्हारी मम्मी गाँव की जमीन बेचकर अपना हिस्सा माँगने लगी हैं'...। शायद बाई मंथरा की भूमिका भी निभा रही है।"


शर्मा जी बोले, "बेटा! गाँव में परिजनों से मनमुटाव बढ़ा तो कहीं हमारा वनवास (शहरवास) परमानेंट ना हो जाए..अस्थायी नौकरी हैं,कल को क्या हो? रामायण हर काल में पढ़ी जाएगी या नहीं, लगता है घटित जरूर होती रहेगी। मंथरा और कैकयी होंगी,,,दशरथ मजबूर ही रहेगा। वनवास और पवित्रता का हरण होगा। संसार समंदर के क्षितिज पार से पाशविक कामनाओं की लहरें दुःख, द्वेश की बारिशें करेंगी। कर्मबन्धों का संगठित स्वरूप रावण से युद्ध होगा, तो ही पुनः स्वजनों में जाना होगा। खुशियों की दीपावली ऐसे ही नहीं आती।" सुबोध बोला, "मतलब मंथरा को दूर करना ही होगा।" शर्मा जी ने गहरी साँस लेते हुए "हाँ" में गर्दन हिलाई।


सुबोध रसोई की खिड़की के पीछे शीशे से झांकते मम्मी और कामवाली बाई के धुँधले अक्स को देखने लगा।
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गोविन्द सिंह चौहान
गाँव-भागावड़, पोस्ट - भीम, जिला - राजसमन्द ( राज.) पिन. 305921

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