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Monday, 18 January 2021

सबकी ख़ातिर (ग़ज़ल) - डॉ० अशोक ‘गुलशन’

   

सबकी ख़ातिर
(ग़ज़ल)
सबको  हम अपने  ही जैसा माने बैठे हैं,
सबकी ख़ातिर अच्छा-अच्छा सोचे बैठे हैं।
00
दिल में दुनिया भर की पीड़ा दाबे बैठे हैं,
दर्द सभी का सबका दुखड़ा ढोये बैठे हैं।
00
दादा-बाबा ने जितना हमको सिखलाया था,
हम अब तक बस केवल उतना सीखे बैठे हैं।
00
जो रहते थे साथ हमारे अपना कहते थे,
उन अपनों से ही हम धोखा खाये बैठे हैं।
00
दुःख की बदली छँट जायेगी है विश्वास हमें,
कल  सुन्दर  होगा  यह  सपना देखे बैठे हैं।
00
याद तुम्हारी आते 'गुलशन' सबकुछ भूल गये,
बिना  ताल-लय-सुर  के गाना   गाये  बैठे हैं।
-०-
संपर्क 
डॉ० अशोक ‘गुलशन’
बहराइच (उत्तरप्रदेश)
-०-



***
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