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Wednesday 18 December 2019

धर्म सत्ता (लघुकथा) - सुरेन्द्र सुंदरम्

धर्म सत्ता
(लघुकथा)
अचानक प्रतिमाएँ सच बोलने लगी, तो भक्तों को संदेह हुआ कि कहीं पूजा पाठ,तिलक विलक, प्रसाद व भोग लगाने में कोई गलती तो नहीं हो गई!! हमने तो झूठ बोलने के लिए ही तो प्रतिमाएँ गढी थी।इनकी प्राण प्रतिष्ठा भी इसी शर्त पर करवाई थी कि ये हमारे हर झूठ को प्रसाद समझकर ग्रहण करेगी ।इससे हमारे प्राण भी सुरक्षित रहेंगे और धर्म का साम्राज्य स्थापित रहेगा । 
अब अगर ये सच ही बोलना चाहती है तो इनकी जरुर ही कहां है??
बात धीरे धीरे पूरे शहर में फैलने लगी, फिर देश दुनिया में फैली, ,लोग प्रतिमाओं के खिलाफ लामबद्ध होने लगे,उन्हें तोङने की साज़िशें रची जाने लगी,मुद्दा सरकारों तक पहुंचा,टलीविजन पर प्रवक्ता चिल्लाने लगे,!मगर प्रतिमाएं तो जिद्दी बच्चों की तरह सच ही बोलती रही, फिर एक दिन प्रतिमाओं को समाज की मुख्यधारा से बाहर कर दिया गया।लोगों ने अपनी अपनी प्रतिमाओं को खूब भला बुरा कहा।
अगले दिन लोग कोर्ट में स्टाम्प पेपर लिए घूम रहे थे। वे इस बार पक्का इन्तजाम करना चाहते थे कि कुछ भी हो इस बार सच ना बोलने की शर्त पर ही प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा होगी। चाहे कितना भी समय लगे,,बात पुख्ता ही होनी चाहिए। हम रोज रोज अपनी धार्मिक भावनाओं को आहत नहीं होने देंगे बस!!!! अब सारी पुरानी प्रतिमाएँ हटा दी गई ,,नये समझौते के तहत नई प्रतिमाएँ स्थापित हो गई,??घंटे फिर से गूंजने लगे, आरतियां होने लगी, अखबारों में बधाई संदेश छपने लगे, लोग खुश थे।इस तरह धर्म की सत्ता फिर से स्थापित हुई ।
-०-
सुरेन्द्र सुंदरम्
गंगानगर (राजस्थान)
-०-

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