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Monday, 9 December 2019

दीवार पर (लघुकथा) - गोविन्द शर्मा

दीवार पर
(लघुकथा)
बचपन के बाद जवानी, जवानी के बाद बुढापा। अम्मा को इस बुढापे ने घेर लिया था। अम्मा को घर में एक कोना दे दिया गया। बाकी सारे घर पर बेटे-बहुओं, पोतों ने कब्जा कर लिया। अम्मा ने इस नियति को स्वीकार कर लिया। पर उनकी एक इच्छा अभी अधूरी थी। बेटों से कहा, बहुओं से कहा, पोतों से भी। सबने सुनकर अनसुना का दिया। इच्छा थी कि बरामदे की दांई तरफ वाली दीवार के पास उनकी चारपाई रखी जावे। वहां से सारा घर दिखाई देता है। घर के लोग भी आते-जाते दिखते हैं। कभी-कभी तो गली में खेलते बच्चें भी दिखाई दे जाते हैं। पर किसी ने भी उनकी बात नहीं मानी।
बचपन से जवानी, जवानी से बुढापा। बुढापे से... वही दिन आ गया। अम्माजी ने अंतिम सांस ले ली।
अगले दिन एक दुखी बेटे के हाथ में फोटो थी, दूसरे के हाथ में कील और हथौड़ा। दोनों षोकग्रस्त थे। पर बड़ी सुघड़ता से फोटो दीवार पर टांग दिया। घर में से किसी ने एक फूलमाला भी फोटो को पहना दी।
किसी के दिल से आवाज निकली-- आज अगर अम्मा जी जीवित होती तो देखती कि उसी दीवार के पास होने की उनकी वर्शों पुरानी तमन्ना पूरी हो गई है। उन्हें सदा के लिये उसी दीवार पर टांग दिया गया है।
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गोविन्द शर्मा
संगरिया- हनुमानगढ़ (राजस्थान)

-०-
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