निर्भया से मुक्ति कब?
(आलेख)
आए दिन होने वाली निर्भया कांड के समाचार, लेख, कविताएँ, कहानियाँ पढ़ने से लगता है जैसे हम युग परिवर्तन करने जा रहे हैं ।कांड होता है, हल्ला होता है, मोमबत्तियाँ जलती हैं और हजारों लोग सड़कों पर उतर आते हैं, नारे लगाते हैं, कहानियाँ घड़ते हैं ।टीवी चैनल, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ मुद्दे को मसालेदार बनाकर पी आर पी बढ़ाते हैं।
आज मुझे याद आती है महान कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की कविता "एक फूल की चाह "।भले ही विषय भिन्न हो, लेकिन सुखिया जैसी कई निर्भया हैं जिन्हें जलाया गया है ।सुखिया तो महामारी का शिकार हुई थी लेकिन आज फैल रही बलात्कार, भ्रष्टाचार की महामारी का क्या इलाज है ।लोगों की मानसिकता को कैसे बदला जाए ।ये बीमारी तो हमारे किशोरों,युवा,प्रौढ और यहाँ तक कि वृद्धों तक महामारी के रूप में फैल रही है ।इसका ना तो कोई 'टीका ' बना है ना ही कोई 'इंजेक्शन '।कितनी विडंबना है कि एक पिता को अपनी बेटियाँ "राख के ढेर " के रूप में मिलती हैं।मजबूर है वो पिता जो बेटी का बाप होकर अपने को कोसने लगता है ।
हमारे देश की चंद बेटियाँ बड़े बड़े विलक्षण काम करके देश का नाम विश्व स्तर पर कायम कर रही हैं लेकिन क्या वे अपनी सुरक्षा करने में सक्षम हैं? सरकार उन्हें आत्म सुरक्षा की ट्रेनिंग देने की मुहिम तो चलाती है लेकिन कितने अभिभावक हैं जो अपनी बेटियों को उसके लिए भेजते हैं या बचपन से उन्हें इतना ताकतवर बनाते हैं जो वो अपनी सुरक्षा के लिए कम से कम हाथ-पैर तो मार सके ।लेकिन ये सिलसिला तबतक चलता रहेगा जब तक अमानुष विकृत बुद्धि के लोगों का इलाज नहीं होगा ।क्यों आदमी, औरतों को कुदृष्टि से देखता है? कहाँ चली जाती है मर्यादा जो वो अपनी स्वयं की बेटियों के लिए चाहता है ।झंडे और मोमबत्ती लेकर तो हजारों लोग निकल पड़ते हैं मगर कौन जानता है कि उनमें सभी दूध के धुले हैं।जुलूस निकालना, तोड़ा फोड़ी करना, सार्वजनिक चीजें तोड़ना ,अराजकता फैलाकर सरकार के कानून को दोषी ठहराना तो आज आम बात हो गई है ।हम दुनिया बदलने की बड़ी बड़ी बातें करते हैं लेकिन स्वयं को नहीं बदल सकते ।
हमारे देश में खाली दिमाग शैतान का घर बनता जा रहा है ।अधिकांश बच्चे, युवा, प्रौढ, वृद्ध ऐसे हैं जिनके पास व्यस्त रहने के लिए कोई काम नहीं है ।छोटे काम करने में वे अपनी तौहीन समझते हैं ।घरेलू काम, खेती-बाड़ी ,छोटा काम करने को छोड़कर हर कोई कुर्सी में बैठने के सपने देखता है ।खाली बैठना, लूट पाट, धोखाधड़ी, चोरी, ह्त्या से तो अब डर हट ही गया है ।सोचते हैं जब तक पकड़े नहीं जाते, वारदात को अंजाम देते रहें ।पकड़े भी गए तो जमानत से छूट जाएँगे वर्ना सरकारी जवाँई बन कर रोटी तो मिल ही जाएगी ।
सारी बातों का निचोड़ है मानसिकता में बदलाव ।अब ये कैसे आएगा, हमारे मनोचिकित्सक, समाज सुधारक, शिक्षक, अभिभावक एवं गुणगान ही इसका समाधान निकालें ।
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पता:
श्रीमती सुशीला शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
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Nice thoughts.
ReplyDeleteये बहुत संवेदनशील मुद्दा है मगर हां आपकी प्रस्तुति में कोई कमी नहीं है उसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख। आपको बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ! संवेदनशील मुद्दा है ।
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