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Monday, 2 March 2020

साइकिल (कविता) - सुरजीत मान जलईया सिंह


साइकिल
(कविता)
देख रहा हूँ एक मुसाफिर
चला रहा साइकिल।
मस्त हवा में अपने कैसे?
उड़ा रहा है बाल।

सिर्फ दिखावे के इस युग में
लाया है साइकिल।
इतना उसे सकूं भी आखिर
कहाँ गया है मिल?
पलट पलट दिनपत्र देखता
चले कौन सा साल?
मस्त हवा में अपने कैसे?
उड़ा रहा है बाल।

वो दीवाना सा लगता है
अपने-अपने अन्दर।
रब ही उसके बाहर खड़ा है
रब ही उसके अन्दर।
देख देख कर उसे थके हैं
नयन मेरे भीतर।
पूछ रहा है अन्तस मेरा
मुझसे उसका हाल।
मस्त हवा में अपने कैसे?
उड़ा रहा है बाल।

छुप-छुप उसे देख हंसते हैं
उसके साथी संग के।
बात बनाते फिरते हैं कुछ
बेढंगी बेढंग के।
जैसे सब ने उसकी खातिर
बिछा रखा हो जाल।
मस्त हवा में अपने कैसे?
उड़ा रहा है बाल।
-०-
सुरजीत मान जलईया सिंह
दुलियाजान (असम)
-०-
***
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