अपने हिस्से का आकाश...
(लघुकथा)
"अरे..सुनती हो! बाहर आकर देखो, पटाखों की रोशनी कितने खूबसूरत रंग बिखेरती हैं।" मकान की छत पर लकड़ी के सहारे खड़े आलोक जी ने अपनी पत्नी को पुकारा तो अन्दर से आवाज आई," आती हूँ...लक्ष्मी पूजन का दीया जला लूँ पहले।" आलोक जी बड़बड़ाने लगे, "नीचे चार कमरों का मकान पूरा खाली पड़ा था। बच्चे गाँव से दूर शहरों में अपने बीवी-बच्चों के साथ रहते हैं...काश! वार-त्योहार पर तो घर आते।" पीछे खड़ी आलोक जी की पत्नी ने सुना तो बोल पड़ी, "क्यूं मन छोटा करते हो...सबके अपने अरमान हैं..अपनी-अपनी जिन्दगी...आज दीपावली है..हमें हमारे हिस्से का आकाश मिल गया..पटाखों के खुशियों भरे शोर और सतरंगी मुस्कुराती रोशनियों को निहारते यह रात भी निकल जाएगी..कल राम-राम करने तो कोई ना कोई तो आएगा ही।"
गालों पर लुड़कते गर्म आँसुओं को पौंछ आलोक जी पास पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए बोले, "सही कह रही हो..पर अकेले तो त्योहार भी बर्दास्त नहीं होते हैं।"
-०-
गोविन्द सिंह चौहानराजसमन्द (राजस्थान)
Excellent story, जमाने का दस्तूर दर्शाती शानदार लघु कथा ।
ReplyDeleteसाधुवाद ।